वर्तमान के देहरी पर देश बाट है जोह रहा

क्यों हर घटना में तुम हरदम रंग मज़हबी भरते हो
जब भी मिलता मौका है तो रटा  रटाया पढ़ते हो
किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वो चेहरा स्याह कर लेता है
फिर अपने अंदर ही अंदर घुट घुट जीता मरता है
वर्तमान के देहरी पर देश बाट है जोह रहा
ये बिखंडन की राजनीति से मेरा हरदम विद्रोह रहा




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