30 September, 2010

सागर का बूँद हूँ मैं , या हूँ फिर बूँद में सागर

आवाज़ मेरी मद्धम ही सही
पर जोश जो मेरे अंदर है
जो हलचल है ऊपर ऊपर
भीतर तो शांत समंदर है
तुम सोंचते हो मैं अकर्मण्य
युहीं पागल सा रहता हूँ
पर मैं तो धारा नदी का हूँ
सागर के ओर ही बहता हूँ
सागर से मिलना लक्ष्य मेरा
और हो जाना अस्तित्व शून्य
कर्मो की चिंता है किसको
है किस के लिए पाप और पुन्य
सागर का बूँद हूँ मैं , या हूँ फिर बूँद में सागर
आनंदित हूँ अकिंचन मैं अपना अस्तित्व मिटाकर .........

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