26 May, 2018

पत्रकारिता













सच क्या है , वो जो दिन रात दिखा रहे हो
या फिर वो जो चतुराई से छीपा रहे हो
अब तो आँख न देखती है , न सुनता कान है
जुबान पे चुप्पी है , अंतर्मन परेशान है

मन के अंदर भी होता है विस्फोट
और संवेदनाये घायल हो जाती हैं
अश्रुधारा निकल पड़ती हैं फायर ब्रिगेड की तरह
मारा जाता है विश्वास इस गतिविधि में रोज़
शायद यही है तुम्हारी  समसामयिक  पत्रकारिता की ख़ोज

कभी पक्ष और विपक्ष कभी
तील का ताड़ बनाते रहिये
बता के चोर, हर इंसान के दाढ़ी में
चुपके से तिनका कोई, युहीं  घुसाते  रहिये।



22 May, 2018

गाढ़ी कमाई

जरूरी तो नहीं हर रस्ता  मंज़िल की दुहाई दे
हर ख़ुशी के  मौके पे ,याद कोई मिठाई दे
कभी नम आखें बयां करती है इज़हारे ख़ुशी को
कोई बेटा जब अपनी माँ को गाढ़ी कमाई दे















21 May, 2018

साँसों की बेचैनी भी आँखें खोल देती हैं















कभी खामोशी भी कोई कहानी बोल देती है
कभी मन पीटने को ,कोई ढिंढोरा ढोल देती है
कभी तो मौन की भी गूँज ,कानो तक पहुंचती है
कभी साँसों की बेचैनी  भी आँखें खोल देती हैं





13 May, 2018

माँ

















तुम सूत्रधार मेरे जीवन की
रंगमंच की नींव भी तुम
दीपक भी तुम ,बाती भी तुम
उसमे जलता वो घीव भी तुम

मैं जो भी हूँ ,जैसा भी हूँ
वो आशीर्वाद तुम्हारा है
मेरे समस्त व्यक्तित्व  को माँ
तेरी शिक्षा का सहारा है


12 May, 2018

हार नहीं मैंने माना है , जग का जितना शेष है
















महसूस करो तो सब संभव है
दूरी मात्र बहाना है
कठिन यात्रा सबसे वो
जब बुद्धि से भाव तक जाना है
राह मेरी अब उसी दिशा में
मंज़िल ह्रदय विशेष है
हार नहीं मैंने माना है
जग का जितना शेष है




10 May, 2018

अंतर्मन को सुन सकूँ वैसा कान न मिला





















लिखने को शेष क्या रहा, न शब्द हैं न भाव
ये व्यवस्था की दोष थी, या विद्या का अभाव
शिक्षित तो हो गए पर ज्ञान न मिला
ID कार्ड तो मिली पहचान न मिला
दुनिया को देखने के लिए  नेत्र  तो मिली
अंतर्मन को सुन सकूँ वैसा कान न मिला






07 May, 2018

हार रणभूमि में चारों खाने चित होगी


















असंभव कह के
उमीदों का गला घोंटा है ,
मैं तो कहता हूँ
अपना ही सिक्का खोटा  है
उदंड मन पे
अंकुश लगा के देखो तो
बीज़ उमीदों के
फिर से अंकुरित होगी
हार रणभूमि में चारों खाने चित होगी।