23 July, 2009

अर्जुन हूँ मैं और मैं ही हूँ वो पार्थसारथी ......


जिन्दगी की पाठशाला में

मैं हूँ विद्यार्थी

अर्जुन हूँ मैं और मैं

ही हूँ वो पार्थसारथी

हर मन की दुविधा मेरी है

और हल भी पास है

फिर भी मन मेरे तूँ

क्यूँ बदहवास है

लड़ाईयां रही है जारी

और लड़ते रहे हैं हम

होता जो युद्घ मस्तिष्क में

देखा उसका भी चरम

युद्घ है कहाँ ये तो खेल अंहकार का

मैं तो हूँ पुजारी उसी निर्विचार का

जो हार और जीत से परे है प्रबल है

ये वो विचार है जो कीचड़ में कमल है ..............







12 July, 2009

एक बार मुस्कुरादो मेरे रचियता ..............


एक बार मुस्कुरादो मेरे रचियता

और कर दो शंखनाद की एक युद्घ होना है

इस बार विचारों की जो सेना उग्र है

उन विचारों को अब शुद्ध होना है

एक बन रही सुरंग तेरह इंच की यहाँ

उम्मीद है जो पुर्णतः बदलदे ये जहाँ

ये नित नए झगड़े पर लगना है पूर्ण विराम

गूंज विचारों की को दंडवत प्रणाम

मन ने किया अबतक है मनमानी निरंतर

होने लगा हावी है उन पे मेरा हृदय प्रखर

विचारों के केन्द्र को हृदय पर होना स्थापित

रचयिता बजा दो बिगुल होगी ह्रदय की जीत

जय हो का गूँज मुझको अब देता सुनाई है

इस जीत पर मेरे हृदय तुमको बधाई है

तांडव न हो कोई न अब कोई रास हो .............


तांडव न हो कोई न अब कोई रास हो

हर पल तुम्हारे सत्ता का सहज एहसास हो

कोई गीत बंधे न अब शब्दों के बंधन में

हर जीव थिरके बस वही एक अंतर्नाद हो

बन जाए आँखें हीं संवाद के सेतु

अब भाषा पे क्यूँ कोई विवाद हो

मेरा है क्या जो मुझको अंहकार दे दिया

तुम श्रेष्ठ हो अलग हो ये विचार दे दिया

फिर जो पहल हुआ वो अस्तित्व के लिए

प्रभु गेंद बना कर इस तरह न खेलिए

मुझको वो समझ दीजिये मेरे श्रिजंहार

मैं अभीव्यक्ति आपका हूँ और आप चित्रकार

मैं जाऊं गर भटक तो रास्ता दिखाईये

मेरा बना रहा सदा आपसे व्यभ्हार..............




09 July, 2009

हर बीज में निहित है शक्ति घने जंगल की.........


हर बीज में निहित है शक्ति घने जंगल की

हर जीव है संकेत आनंद मंगल की

हर चीज जो रचयिता का निर्माण है

उसी के अनंत संभावनाओं का प्रमाण है

उस बीज को देदो तुम वातावरण खिलने की

दे दो वो माहौल तुम मिटटी में मिलने की

ताकि बने जो जंगल वो जीवन का सार हो

उसके कण कण का ईश्वरीय आधार हो

ये बीज कुछ नही विचारों का ही रूप है

हर वो विचार जंगल बने जो इश्वर स्वरुप है ...............................


मुझे मरना है एक बार

डर के आगे जीत है

पर मरने के डर से हर कोई भयभीत है

जैसे जन्म एक सच है , मौत भी यथार्थ है

आज रणभूमि में फिर दिग्भ्रमित पार्थ है

मुझे मरना है एक बार

मैं रोज़ रोज़ के मौत से घबराता हूँ

जिधर भी आँखें जाती हैं

मौत का नंगा नाच दिखाती है

मुझे दे दो आजादी

कर दो मुक्त बंधन से

मेरे मलिन ललाट पर

तिलक दो चंदन से

मैं मौत का पुजारी नही

नाही मैं जीवन का व्यापारी हूँ

मैं एक सम्मान जनक मौत का अधिकारी हूँ

मेरा मरना मेरे अभिव्यक्ति के लिए जरूरी है

अभी भी मेरी जीवन गाथा अधूरी है

07 July, 2009

जब साथ हो कल्पवृक्ष तो क्यूँ चाह बीज की ...........


मुझे दीखता है गुरु प्रकृति के हर एक रूप में

साथ उसका मिला मुझे हर छाँव धुप में

मैं कब कहाँ अलग था मैं कब था अकेला

गुरु तुम थे तो मैं सोना बना ,था तो एक ढेला

मेरा है क्या जो मुझको हो थोड़ा भी घमंड

विस्वास मेरा तुझपे है अडिग और अखंड

तुम हो तो फिर कमी कहाँ है किसी चीज की

जब साथ हो कल्पवृक्ष तो क्यूँ चाह बीज की ...........

गुरु तुम पूर्ण माँ हो


गुरु पूर्णिमा पर अन्धकार का दमन

गुरु के चरणों में मेरा नमन

तुम ब्रह्म हो और विष्णु भी

तुम ही महेष हो

मेरे चैतन्य के केन्द्र में

तुम विशेष हो

तुम्हारे सान्धिय में मेरा विकास है

होना तुम्हारा जैसे एक खुला आकाश है

गुरु तुम पूर्ण माँ हो

गुरु पूर्णिमा पर मेरा स्वीकार करो दंडवत प्रणाम

तुमने ही दिया मेरे जीवन को नई परिभाषा नया आयाम ...........