31 July, 2013

एक मात्र लक्ष्य

अफ़सोस नहीं मुझको इंसान होने का
बस खेद है ह्रदय में बेजुबान  होने को
उठाया नहीं आवाज़ अन्याय देख कर
कोई  अपना नहीं है ये असहाय देख कर

'क्या फ़र्क पड़ता है ' मैं ये सोंचता रहा
अंतर्मन का अंतरद्वंद कचोटता रहा
अपने ही विचारों को जो गुलाम आदमी
आ सकेगा क्या किसी के काम आदमी

गेहूँ की लड़ाई में कुरबां गुलाब है
दोनों में समन्वय हो मेरा ये ख्वाब है
तिनके का सहारा सही, बनूँगा मैं अवश्य
आ सकूँ किसी के काम, मेरा एक मात्र लक्ष्य





अस्तित्व की लड़ाई

दैनिक संघर्ष,स्याह चेहरे
आजीविका  की जद्दोजहद 
से परिभाषित अस्तित्व की  लड़ाई (struggle for existence)
जो हमारी दिनचर्या का अहम हिस्सा है
 वस्तुतः विकाश से विनाश के
६५ वर्षीया यात्रा का ही तो किस्सा है 

 डार्विन होते तो शायद वो भी घबराते
अगर वर्तमान में भारत भ्रमण को आते
देखते की ये कृत्रिम अस्तित्व की लड़ाई
राजनैतिक दीवालियेपन की पराकाष्ठा  है
और बस एक राग डेमोक्रेसी में हमारी आस्था है
चुनौती ये की इस लड़ाई में
कोई सर्वश्रेष्ठ और योग्य भी नहीं बच पाता है
प्रश्न अनायास मानस पटल पर उभर आता है
 की क्या सच में ´भारत भाग्य विधाता है´?


29 July, 2013

साहित्य के भी रण में शंखनाद चाहिए

कलम है विद्रोही
कागज़ नाराज़ है
कैसे हो समन्वय
दुर्लभ ये काज है

स्याही की बगावत
की कागज़ अछूत है
विचारों में चक्रवात
पुख्ता सुबूत है

क्या सत्य को कभी
करोगे व्यक्त तुम
या छलते  रहोगे
हमें प्रेमराग से
अब हार गया हूँ तेरे
दूषित दिमाग से

चेतावनी मेरी
आगे जो लेखनी
कलम उठे तो सत्य की ही बातचीत हो
दिमाग का नहीं कलुषित गणित हो
सभी `वाद ` से परे (जातिवाद , धर्मवाद, आतंकवाद) संवाद चाहिए
साहित्य के भी रण  में  शंखनाद चाहिए



 

28 July, 2013

वापस मुझे अब मेरा सम्मान चाहिए

जब कुछ समझ न
आये मैं हूँ आम आदमी
अपनी उधेड़ बुन में मैं
गुलाम आदमी
सत्ता से  पराजित हुआ गर शख्स कोई है
उसी प्रतियोगिता का मैं परिणाम आदमी

किसको कहें सरकार, सरकार कहाँ है
जो छुले ह्रदय को वैसा प्यार कहाँ है
सुकून जो ख़रीद सकूँ इस जहान में
कोई तो बतादे वो बाज़ार कहाँ है

कहाँ है वो आकाश कभी जो था नीला
हम फेफड़ों में भर रहे वायु विषैला
पानी का पीलापन अब दिखती है आँखों में
भारत निर्माण का कैसा है ये सिलसिला

जरूरतों के पदानुक्रम (Hierarchy of needs)
के निचले पायदान पर
टकटकी लगाए हुए  हम आसमान पर
पुकार रहे तुमको समाधान चाहिए
 फेके हुए चंद टुकड़े रोटी के नहीं मंज़ूर
वापस मुझे अब मेरा सम्मान चाहिए




27 July, 2013

ये यात्रा अनोखी जीवन की दास्ताँ है


















कुछ तो विचार होंगे
गतिमान जिंदगी है
कोई विशाल लक्ष्य होगा
अनजान जिंदगी है
हम तो हैं मात्र राही
चलते हैं हर डगर पर
कुछ परिचित सी राहें
कभी अनजान किसी सफ़र पर
ये यात्रा अनोखी जीवन की दास्ताँ है
कभी अकेला मैं हूँ कभी तो कारवां है
अनुभूति जो ह्रदय में
अनुभव मिला जुला है
कभी रहा अकेला
कभी हमसफ़र मिला है
बाहर की यात्रा हो
या अंतर्मन का जो भ्रमण है
मिला स्नेह पथ पे जिनसे 
उन सब को मेरा नमन है





26 July, 2013

छत्तीस का आँकड़ा

जब भूख पेट को जला रही हो
आंकड़े देश को चला रही हो
ऐसे में सच बस इतना है
फ़र्क नहीं पड़ता इनको
तुम भूखे हो या प्यासे
आओ मिलकर देखें हम
डेमोक्रेसी के तमाशे

एक पांच और बारह हो
हो सताईस या तैंतीस
एक आँकड़ा है ऐसा
हम जिसको कहते छत्तीस
यही मात्र वो आँकड़ा है
जो जनता सरकार को बाँटे
गूलाब तेरी गेहूँ भी तेरा
हिस्से हमारे बस काँटे

भूख तो बस होता सेक्युलर है
क्या हम बस आँकड़े खायें
तुम्ही बतादो  जादूई जगह वो
जहाँ हम अपनी भूख मिटायें





 

25 July, 2013

तुम छिडकते रहना नमक युहीं मेरे घावऔर फोड़ों पर ....

षड्यंत्र नहीं तो क्या है और
किसके हांथों है बागडोर
लगता यूँ देश चलता हो
बाबा अली उसके असंख्य चोर
ये अली बाबा हैं मूक बधिर
न कुछ सुनते न बोलते हैं
बीन हाँथ किसी और के है
ये सर्प के भाँती डोलते हैं
योजना आयोग भी इनका है
चोरों के दाढ़ी तिनका है
जो सपने झूठे दीखा रहे
ज्ञात नहीं वो किनका है
हो रही गरीबी दूर यहाँ
जनता बस है मजबूर यहाँ
भारत निर्माण है जोरों पर
तुम छिडकते रहना नमक युहीं
मेरे घाव और फोड़ों पर ....

24 July, 2013

योजना आयोग

परिभाषा गरीब की
निर्धनता से नहीं आंकड़ों में खोई होती है
सच इतना है की वातानुकूलित कमरे में कोई
योजना आयोग इसके जहरीले बीज़ बोती है
और तब जो मिथ्या सत्य का रूप युहीं ले लेती है
उसमे गरीबों की संख्या निरंतर घटती जाती है
हम विकास के नए आयाम तय करते हैं
पर जिनके थाली से गायब हुई रोटी
वो इन आंकड़ो से डरते हैं
डरते हैं की कैसी सरकार है
जो आज़ादी के वर्षों बाद
खाद्य सुरक्षा की बातें करती है
यथार्थ तो ये है की जनता
कुपोषण और भूख से पल पल मरती है
उस वर्ग का शायद ही कोई प्रतिनिधी
उन कमरों तक पहुँच पाता है
जहाँ गरीबी नहीं अपितु गरीबों को
हटाने का षड्यंत्र रचा जाता है .

22 July, 2013

गुरु पूर्णिमा













जीवन के आदि अंत में जो अंतराल है
वो रिक्त जो स्थान है कितना विशाल है 
आरंभ विद्या का तुमसे ही तो है माँ 
स्वीकार करो नमन आज गुरु पूर्णिमा 

गर तुम न होती ,होता क्या मेरा कोई वजूद 
तुम्हारे शिक्षा का ही तो जीवंत मैं सबूत 
मेरे ललाट पर है जो ये तिलक ये अक्षत 
जीवन के उस प्रथम गुरु को मेरा दंडवत 





 

18 July, 2013

दायित्व


दायित्व से अपने तुम 
कंधा चुराते चलना 
करना बयानबाजी 
खेद शोक व्यक्त करना 
कहना जो हो रहा है 
षड्यंत्र विरोधी का 
बच्चों की हत्या या फिर 
आतंक महाबोधि का  

नौकर हो या हो अफसर 
या राजनेता कोई 
अगर है वो अपराधी 
तो संकोच फिर है कैसा 
मुबारक हो तुमको ही तुम्हारे 
मुआवजे का पैसा
 
जिसने किया उपद्रव  
उसका क्यूँ  महिमामंडन  
क्या मूक बधिर हो तुम 
सुनते नहीं जो क्रंदन .....

अपराधी तो अपराधी 
क्या सेक्युलर क्या कोमुनल 
हो जो भी वो कुकर्मी 
पहले करो तुम दंडित 
कुतर्क देना छोड़ो 
वो दलित हो या हो पंडित 

 




 
 









17 July, 2013

क्रायिसीस का डेमो देना डेमोक्रेसी है
























अब तो हर रोज़ कोई घटना झकझोरती है
जो है विश्वास अंतर्मन में उसे तोड़ती है
कहाँ वो देश जहाँ जवान और किसान की जय
कहाँ ये देश जिसे नित नए अपमान का भय

जब ज्ञात हो समस्या समाधान तो हो
क्यूँ भविष्य की चिंता पहले वर्तमान तो हो
रोटी की जगह तुम धर्म और जाति देखो
हो रहा जो उसे बेशर्म की भाँती देखो

दलों के दलदल में देश पे संकट भारी
घाव देके, मरहम पर सबसिडी की तैयारी
आज क्रायिसीस का डेमो देना डेमोक्रेसी है
यही प्रजातंत्र की परिभाषा बनी स्वदेशी है ..










 

14 July, 2013

मैं भी तो हूँ दोषी






झूठ ज़ोर से बोलके 
सच को दिया दबाय 
सत्ता के गलियारे 
में तो मचा  है हाय हाय 
देश का बंदरबांट हो रहा 
नित योजना नयी बना के 
जनता को ठग रहे निरंतर 
सब्ज़ बाग़ दिखलाके 
समाचार भी सही कहाँ है 
हावी हैं सताधारी 
छद्म सेक्युलर कहलाने की 
होड़ में मारामारी 
जो सरकार को था करना 
अब न्यायालय करती है 
फिर भारत निर्माण का 
कैसे ये दंभ भरती है 
जल जंगल ज़मीन का सौदा 
अन्धाधुन है जारी 
देश विकास के पथ पर है 
कहते आंकड़े हैं सरकारी 
हम तो बस युहीं मौन हैं 
पर अब चुभती खामोशी  
अब लगता मुझको भी है 
की मैं भी तो हूँ दोषी 




 




12 July, 2013

मेरा भारत महान

काश कोई होता जो मन की पीड़ा हर लेता
और भर लेता अपने बाहों में
और झाँक कर कहता मेरे निगाहों में
की अपराध नहीं संवेदनशील होके
चेतना शून्य होना
पर खेद है शायद चेतना शुन्य होना
गंभीर अपराध है
ऐसे में ये सोंचना भ्रम है
की कोई आये
और पीठ थपथपाए
जब रोटी थाली से गायब हो रही हो
और प्यास से कंठ सुखा हो
और उस रोटी की जंग में उलझा
चेहरा जो मेरा नहीं है
ऐसा सोंच के आश्वस्त मैं
भविष्य की योजना बना रहा हूँ
ज्ञात नहीं किस रस्ते जा रहा हूँ
क्या शिक्षा महज इस लिए
की अपनी अकर्मण्यता को
साबित करने में लगादें अपना बुद्धि और ज्ञान
फिर कैसे कहें मेरा भारत महान ..............

10 July, 2013

क्या फर्क पड़ता है




















क्या फर्क पड़ता है
जब आंकड़ों में विकास जारी  हो
और सामूहिक आत्महत्या की तैयारी  हो
रोटी के लिए संघर्ष
पानी विष का प्याला
त्रासदी और महामारी
उसमे भी घोटाला
मौत तो सेक्युलर है
न टोपी देखेगी न ललाट पर चन्दन
बस अचानक ही टेटुआ दबाएगी
और उसी क्षण सांस थम जायेगी
आज शर्म से नतमस्तक
ईमानदारी है
लूट का अखिल भारतीय कार्यक्रम
का  सीधा प्रसारण जारी है
चलो मूक दर्शक बन रियलिटी शो देखते हैं
क्या फर्क पड़ता है  

09 July, 2013

चारदीवारी












न द्वार न वातायन बसचारदीवारी है
जैसे किसी बक्से में बुद्धि कैद हमारी है
मन की नहीं सुनता मैं ह्रदय भी मौन रहता
न है कोई जिज्ञासा इस खंडहर में कौन रहता
फिर जो नाटक है जो नौटंकी, बुद्धि की ही तो सृजन है
विचारों का बगीचा या कैक्टस का कोई उपवन है
काँटों की इस दुनिया में फूलों की चाह रखना
कोई तो लक्ष्य होगा जिसपे निगाह रखना
वो लक्ष्य मात्र ही तो स्वप्न है राही का
ये मार्ग तो कठिन है पर नहीं तबाही का
जो खोले मन की खिड़की ह्रदय के पट भी खोले
डब्बाबंद जो बुद्धि है स्वछंद हो के बोले
उसी उद्घोष का मैं इंतज़ार कर रहा हूँ
मन और मस्तिष्क दोनों को तैयार कर रहा हूँ
ह्रदय की भावना अब विचार के माध्यम से
रचेगी अनोखी रचना नए कुची और कलम से ...........

08 July, 2013

अंतराल

 होश काव्य है


आक्रोश काव्य है


और काव्य है मेरे


मन के भाव आवेष


मेरे विचारों की कड़ी भी एक काव्य है


अंतर्नाद ह्रदय की भी काव्य का है रूप


अस्तित्व मेरी भी तो काव्य मात्र है


सृजन विनाश की एक अक्षय पात्र है


अमृत है विष भी है प्रारब्ध में मेरे


वही झलकता है हर शब्द में मेरे


मेरी हर एक कृति अभिव्यक्त भाव हैं


इश्वर के शब्दकोष का ही ये प्रभाव है


की भाव शब्दों  के परे सागर विशाल है


जो है महत्वपूर्ण बस अंतराल है ........























07 July, 2013

महाबोधी में आतंक








फिर रोया मन देखके महाबोधी में  आतंक 
पोत गया माथे पे देश के फिर से कोई कलंक 
जारी है नेताओं का खेद शोक संदेष 
रंगे सियारों को पहचानो छिपे बदल के भेष 
छिपे बदल के भेष देश का कर रहे  बंटाधार 
सत्ता इनके हांथों में यही बने सरकार 
यही बने सरकार रो रही भारत माता 
वन्दे मातरम् गाये जो कोमुनल हो जाता 
यहाँ वही सेकुलर जो तुस्टीकरण करेगा 
क्या मौन रहे युहीं हम जबतक अपना कोई नहीं मरेगा 
नम  आँखें हैं मेरी और बोझिल ये मन है 
कैसा है राष्ट्र कैसा ये  जन गन मन है 

05 July, 2013

ज़ीगर मा बड़ी आग है

ज़ीगर  मा बड़ी आग है ,तो बीड़ी  जलालो भाई
किसी के खुशियों को क्यूँ जलाते हो
जख्म भी देते हो नासूर भी बनाते हो
और फिर बाद में मलहम भी लगाते हो
पर इस क्रम में कोई विश्वास  खो देता है
किसी का अंतर्मन रो देता है
कोई मौन हो जाता है कोई गला फाड़ चिल्लाता है
तुम्हारे अंदर की आग कहीं धैर्य न दे किसीका तोड़
आक्रोश हम में भी है, हो जाए कहीं जो भंडाफोड़
याद रहे कभी हमारा भी वक्त आएगा
तब देखना है की तुम्हारे जख्मो पर कौन मलहम लगायेगा...........


03 July, 2013

मौन की गूँज







मैं वही हूँ कागजों  में है समाया गुण मेरा
प्रमाण पत्रों से परे कुछ और भी है धुन मेरा
ये वो टुकड़े कागज़ के अर्जित किया खो के सुकून
जीवन के रेस  में युहीं दौड़ रहा अन्धाधुन
पाया है क्या ,पाना है क्या, दौड़ते जाना है क्या
कोई नहीं जो इन सवालो का सटीक सुझाव दे
अंसंख्य है बैठे यहाँ की फिर नया कोई  घाव दें
जो जख्म है जो घाव है जो  नित नए  तनाव है
 उनके सहारे मौन में भी गूँज ढूँढता हूँ मैं
कोई तो होगी प्रभात  इस अँधेरी रात की
विश्वास मन  में लिए प्रकाशपुंज ढूँढता हूँ मैं