31 August, 2013

विधाता की स्याही

क्या तिरस्कार अपमान क्या
जब हुए प्रतिज्ञाबद्ध यहाँ
तो शोषण क्या
कल्याण क्या

खुले आँखों से देखूं मैं स्वप्न
कुछ कार्य आवश्यक करने का
जो घाव असंख्य सहे हमने
उन सब घावों को भरने का

माना की लम्बी है बहुत रात
पर आशा है की नव प्रभात 
शीघ्र हर लेगी ये तिमिर घोर
बस देहरी पर आ गया भोर

पर इस क्षण  की जो परिक्षा है 
बस सही समय की प्रतिक्षा है
नहीं मन को यूँ घबराने दो
वो अवसर तो आ जाने दो

जब पञ्चजन्य की शंखनाद
रणभूमि को  कर देगी पवित्र
उस रण के ही बेदी पर तो 
उभरेगा जीवन का मानचित्र
उस मानचित्र को  पाने को
दैनिक संघर्ष मिटाने को
मैं वचनबद्ध सिपाही हूँ
जो रच सके स्वर्णिम वर्तमान
विधाता की वैसी स्याही हूँ 










26 August, 2013

उसके होने पे शक मैं जताता रहा















आ गए है उसी मोड़ पर फिर से हम
चले थे जहाँ से कफ़न बाँधकर
की खुदको भी देंगे वो आयाम अब
जो मिला न मुझे उसको पहचानकर

वो अलग था, ये भ्रम मैं भुनाता रहा
उसके होने पे शक मैं जताता रहा
पर जीवन की तपिश में खुले रेत पर
कोई तो था जो मुझको बचाता  रहा

स्याह चेहरा मेरा,
या पाँव के छाले हों
कई घाव जो मैंने खुद पाले हों
उन सबों पे जो मरहम लगाता रहा
उसके होने पे शक मैं जताता रहा

विक्रम के कंधे पे बैताल के भाँती मैं
हमेशा ही पूछा सवाल एक अहम्
जब संघर्ष मेरा था जारी यहाँ
तेरे होने पे मुझको रहा है भरम

क्रोध में जो कहा तुम कहाँ रह गए
कहते थे हमेशा मेरे साथ हो
कहाँ हैं तुम्हारे पदचिन्ह यहाँ
अगर तुम सच में मेरे नाथ हो

तुम्हारा इशारा उन पदचिन्हों पर
जिसे मैं अपना समझता रहा
बैताल के भाँती कंधे पे मेरे
वो बन्दे तू हमेशा लटकता रहा
ये जाना तो फिर क्या रहा जानना
तुम थे उंगली पकड़कर चलाते रहे
जब भी थक जाता मैं, स्नेह से तुम्ही तो
कंधे पे अपने मुझको बिठाते रहे.









25 August, 2013

हिरण्यकशिपु अनेक, प्रहलाद नहीं है

उड़ने का मन होता है
पर  पंख साथ नहीं है
युद्ध की अभिलाषा
शंखनाद नहीं है
मंदिर की पूजा चाहूँ
मगर प्रसाद नहीं है
करदे जो उर्वरित जीवन के भूमि को
बाज़ार में उपलब्ध वैसा खाद नहीं है
मुझमे ही कम समझ होगी दुनियादारी की
हिरण्यकशिपु  अनेक, प्रहलाद नहीं है
ये देश अनोखा है , सत्ता लूटेरों का
धर्मनिरपेक्षता थोथी है राष्ट्रवाद नहीं है
मेहनत से कमाई जो रोटी दाल थी
बेईमानी के बिरयानी में वो स्वाद नहीं है
पथराई हुई आँखें , सूखे हुए जो कंठ
कैसे कहूँ कोई दुःख और अवसाद नहीं है







24 August, 2013

जूनून


















क्या किताबों में छीपा
जीवन का सार और  ज्ञान है
मैं  ने जो सार्थक है सीखा
अनुभव उसका प्रमाण है

किताबों से, परे है ज्ञान
जीवन की पाठशाला में
जो शीक्षा  निहित मानवता में
है मस्जिद न शिवाला में

फिर भी तो हम अंधों के तरह
अपने ही धुन में मस्त हैं
धर्म , जाति, गोत्र में
ढूँढ़ते हल समस्त हैं
बस निशानी और चिन्हों में
तत्व ढूँढ़ते हैं हम
प्रतिष्ठा और परंपरा में
महत्व ढूँढ़ते है हम
ढूँढ़ते हैं जवाब हर सवाल का हम मजहबी
अपने सहर में आज बन कर के एक अजनबी
इस अजनबी से सहर में ,न चैन न सुकून है
खुद को ही मिटाने का  कैसा ये जूनून है








22 August, 2013

मौन



















क्या हुआ जो है न कोई
राह भी स्तब्ध है
जो खुशी के चंद पल हैं
मौन में उपलब्ध हैं

कोई तो श्रोत होगा जो
भावों के असंख्य प्रकार  हैं
मेरे जो वक्तव्य हैं
वो मनः स्थिति  का ही विस्तार हैं

विस्तार हैं वो खलबली के
जो विचारों में कभी
और कभी वो गूंज हैं
कभी मौन मन की हैं छवि
कभी तो अंतराल है
विचारों के घने  जंगल में
और कभी कर्फ्यू की भाँती
पसरे अपनों के दंगल में
जो भी हैं लहरों के तरह
उपरी सतह के  हिलोरे हैं
जिसे अभिव्यक्त करने को
कई सीमाएं हमने तोड़े हैं




21 August, 2013

रक्षा बंधन

बंधन है रक्षा सूत्र है बहनों का प्यार है
कितना सुखद  ये राखी का त्योहार है
बचपन के वो नोक झोक हर बात पर हुडदंग
लगता था यूँ छिड़ा हुआ  पानीपत का जो हो जंग

उन कुछ क्षणों को ह्रदय में जीवंत देख कर
मैं मांगता हूँ आज आशीर्वाद ये प्रखर
बहना तुम्हारे स्नेह का सदैव  ऋणी मैं
तुम्हारी कृपा रही पराजित न  हुआ मैं
अब कुछ नहीं बस तेरा आशीर्वाद चाहिए
स्नेह के अमृत का दैविक स्वाद चाहिए

काल चक्र का अब तो खेल देखिये
बहन कहीं है और, भाई भी सुदूर है
भले लगे साधारण ये धागा मात्र ही
इसमें समाहित बहन का प्रेम प्रचुर है




 









19 August, 2013

ईश्वर के किसी योजना का हिस्सा हूँ


















अब तो बस एक ही इक्षा है आनंद मिले
सुख दुःख , हर्ष और विषाद का जो चक्कर है
उनसे दूर कहीं जीवन से जा  स्वछंद मिलें

हार और जीत के खेल में उलझा मन है जो
परे उसके अभिव्यक्ति पे ध्यान मेरा हो
रौशनी हो मेरे  प्रारब्ध में जहाँ घनघोरतम अँधेरा हो

जीवन का पर्याय  मात्र क्या आजीविका है
या फिर ईश्वर के किसी योजना का हिस्सा हूँ
जिस कहानी का कोई चरमोत्कर्ष (climax) नहीं
शायद रचयिता का वैसा गतिमान किस्सा हूँ








13 August, 2013

माँ

एक सुबह  मुझको युहीं
यादें पुरानी गुदगुदा गयी
बचपन के कुछ अनमोल क्षण
मानस पटल पर आ गयी
जैसे कोई एहसास
करता स्पर्श मेरा ह्रदय को
माँ का आँचल जिस तरह
हर लेता था कोई भय जो हो
जिनकी हाँथो को पकड़कर
उठाया था पहला कदम
माँ की उन हाँथो को
आज भी मेरा शत शत नमन
मैं तो हूँ विस्तार तेरा
हूँ तेरी अभिव्यक्ति जीवंत
हूँ मैं जो ,जैसा भी हूँ 
 कृपा जो तेरी रही  अनंत


12 August, 2013

सम्मान से जीने का मानचित्र हो प्रत्यक्ष















मैं चाहता हूँ बस सम्मान से जीना
जो डीग्री से नहीं हैं ,
 उपाधी से नहीं है
उध्वेलित जो मन है
उसके समाधि से नहीं है
नहीं है वो सम्मान
किसी मेडल में प्रमाण में
और नहीं है महाप्रयाण में
जीवन जो मिला है ,कोई कारण तो होगा ठोस
या युहीं रहे जीते अनभिज्ञ और मदहोश
वही कारण और उद्देश्य अगर जीवंत हो जाए
भटकाव का सिलसिला त्वरित अंत हो जाए
जीवन को मिलजाए वही एक मात्र लक्ष्य
सम्मान से जीने का मानचित्र हो प्रत्यक्ष











10 August, 2013

होसले की उड़ान है ,सपनो के आकाश में







पंख फैलाके जो उड़ने का ईरादा हो
तो फिर आइये गरूड़ को अपना गुरु माने
उनमुक्त उड़ने का अलग है कायदा  क़ानून
जो ट्रैफिक के रूल्स हैं गुरुदेव से जाने

बत्ती न हरी लाल है, न जेब्रा क्रोस्सिंग
न मिलेंगे आपको हवलदार लल्लन सिंह
कोई हाँथ न दिखलाये, चलान न काटे
कोई मजबूर हो  के इनको हरी नोट न बांटे

प्रतिस्पर्धा नहीं कोई , न कोई होड़ है
पदचिन्ह खोजना नहीं , न कोई मोड़ है
होसले की उड़ान है ,सपनो के आकाश में
मिले आपको आनंद प्रथम प्रयास में
स्वागत है आपका देखिये दृश्य विहंगम
एक उड़ान पुनः हो  भुला के सारे ग़म ….







09 August, 2013

आज़ादी

















कोई विद्रोह का स्वर , 
मेरे भी अंदर मचलता है 
कहीं कोई आग है ,
जो मेरे सीने में भी जलता है 
हम आज़ाद है पर ये ,कैसी आज़ादी है 
हर एक स्वर प्रबल है जो अलगाववादी है 
पार्टी के नेता कई , देश का कहाँ कोई 
हमारे रहनुमाओं ने कुछ ऐसी बीज़ थी बोई
हम आज भी कुंठित हैं, परेशान हैं 
क्यूंकि गलत हांथों में देश का कमान है 
कैसे कहें की अच्छा सारे जहान से 
वो देश है अपना हिन्दुस्तान हैं …
 
 





07 August, 2013

जन गन मन

नीयत निष्ठा नेतृत्व और नियंत्रण का अभाव
हमारे सरकार का यही तो है स्वभाव
घटना होती है, खेद व्यक्त होता है
होती है कठोर निंदा
पर कोई जिम्मेदार नहीं ,ना ही कोई शर्मिंदा

अपने सीमाओं के रक्षा में वचनबद्ध
उस सैनिक का जीवन
तुम्हारे लिए  मात्र एक अंक है
और तुम्हारी संवेदन शुन्यता
भारत माँ के माथे पे कलंक है

सुरक्षा से समझौता
संस्थाओं का दुरूपयोग
और अंधाधुंध लूट
ऐसे में  प्रजातंत्र पर
तुम्हारी आस्था अटूट,
के स्वांग से जारी डेमोक्रेसी का ह्रास एवं पतन
कैसे गाऊं मैं अब ´जन गन मन´











06 August, 2013

गरीबी वस्तुतः मानसिक अवस्था है

बस युहीं मैंने बोल दिया
की गरीबी वस्तुतः मानसिक अवस्था है
और जो अधिकृत सरकारी व्यवस्था है
उस में कहाँ गरीबी की गुंजाइश है
मेरी तो बस एक ही ख्वाइश है
मेरे खानदान ने देश पे सदैव राज किया है
क्यूंकि गांधी के आदर्शों से हमें क्या लेना 
हम तो उनके नाम की खाते हैं
सिर्फ वादों से भारत निर्माण करते हैं और 
हर पांच वर्ष में हम नया भारत बनाते हैं

क्या हुआ जो रोटी नहीं है
पिज़्ज़ा है बर्गर है मल्टीप्लेक्स है मॉल है
और तुम कहते हो गन्दा माहौल है
कभी 10 जनपथ आओ और देखो
वहीँ से हम भारत निर्माण करते है
विकास के इस दौर में हमारे  हाँथ
अब आम आदमी के गिरेबान तक बढ़ते हैं





 

जोकर














अपना कहाँ है कोई , महफ़िल में अकेला मैं
मील का पत्थर या रस्ते का कोई ढेला मैं
क्या हूँ मैं मार्गदर्शक या नियति में बस ठोकर है
जीवन के इस सर्कस में एक ऐसा भी जोकर है
जो हँसता है हँसाने को, ताकि दुनिया मुस्कुराये
मन की जो व्यथा अंदर रहता है वो दबाये
संघर्ष की कहानी दफन किसी कोने में
सर्कस की सार्थकता जोकर के ही होने में
जाना कहाँ यहाँ से, मरना  यहाँ जीना है
हम सबकी जो कहानी बस  जोकर की दास्तान है

 


05 August, 2013

अब नहीं कोई भी ग़म है, ना शिकायत है

अब नहीं कोई भी ग़म है, ना शिकायत है
बस एक प्रश्न है जो सदैव मुझे सताता है
इंसान इस दुनिया में क्यूँ आता है ?
वजह तो होगी कोई ,कोई तो कारण होगा
मेरा जो प्रश्न है क्या उसका भी निवारण होगा

जब ज्ञात हो की जीवन-मरन सच्चाई है
और ये सच है की एक दिन सभी को जाना है
निवाला छीन के मुख से असंख्य लोगों के
ये कौन से विकास का बहाना है

आंकड़े हैं विकास के , पर विकास नहीं
इंसान को इंसान पर बिश्वास नहीं
जवाब कोई नहीं चाहता देना है यहाँ
कहते बस हैं की
जादू की छड़ी मेरे भी तो पास नहीं

कार्ड कोई भी ´आधार´ या ´राशन´ वाली
कुछ भी बदला नहीं सिर्फ था भाषण खाली
निवाला छीना जंगल ज़मीन जल भी गया
आज़  गिरवी है और आने वाला कल भी गया
गया इतिहास , भविष्य डगमगाता है
ऐसे में कहाँ भारत निर्माण नज़र आता है













04 August, 2013

Happy Friendship day

यूँ तो कोई दिन नहीं होता दोस्ती के लिए
समय कहाँ है दुनिया में बेरुखी के लिए
जीवन के भागदौड़ कठीन रस्ते में
यही वो दोस्त है जो रास्ता दिखाते हैं
धन्य वो हैं जो ऐसे दोस्त पाते हैं

सहकर्मी अनेक दोस्त मुट्ठी भर हैं मेरे
जैसे कोई जलश्रोत हो तपिश में, रेगिस्तान में
अगर मिलना हो उनसे मेरा ही प्रतिबिम्ब हैं वो
मिलेगी उनके ही गुणों की झलक ,मेरे पहचान मे









02 August, 2013

FDI RTI CBI

सारी समस्या का महज़ एक ही दवाई है
सरकार के नज़र में वो मात्र FDI है
भारत निर्माण हो रहा
पूंजी निवेश हावी  है
विकास से विनाश की
ये यात्रा चूनावी है

दूसरा जो ढोंग है कहतें हैं RTI है
खामोश रहने में , यहाँ सबकी भलाई है
अधिकार तो दिखावा है कोशिश है सब छिपाने की
मुहीम झूठी लगती है इंसाफ फिर दिलाने की

तिसरा मज़ाक जो, वो तो CBI है
सरकार के दवाब में इनकी हर कार्यवाही है 
अन्वेषण का तंत्र ये ढोंग है बेईमानी है
किसी को दण्ड न मिले जैसे वचन ये  ठानी है

समस्या तो यूँ अनेको है झांके जो गिरेबान में
हल ढूँढ़ते रहते है हम मजहबी जुबान में











01 August, 2013

प्रखर राष्ट्रवाद

इतिहास गांधी नेहरु के परे
भी है इस देश में
कोई सपूत था यहाँ
वल्लभ भाई के भेष में

कहने को प्रजातंत्र है
सोंचो तो तानाशाही है
उनके हर एक फैसले में
अपनी ही तबाही है

अलगाववाद हावी है
राजनैतिक अवसरवाद है
प्रासंगिक आज भी
सरदार का प्रखर राष्ट्रवाद है