12 September, 2013

जीवन का जश्न














एक समय था जब चेहरे पे मेरे
मुस्कान हमेशा रहता था
जो भी दिल में थे भाव मेरे
खुलकर सबसे मैं कहता था
थी चिंता नहीं न दायित्व कोई
मैं अपने मन का स्वामी था
आज़ाद था मैं, भय था न कोई
मंज़ूर नहीं गुलामी था

पर नियति का यह खेल अज़ब
हँसने का बहाना ढूंढता हूँ
जहाँ मिले इस दिल को सुकून
बस वही  ठिकाना ढूँढता हूँ
मैं ढूँढता हूँ अब बस उसको
जो जवाब हर प्रश्न का है
हार और जीत से परे जहाँ
उत्सव जीवन के जश्न का है






 

02 September, 2013

गाँधी के विवेकी बंदर

अब तो शब्दों के जंगल से
कोई विचार प्रबल हो
जो भी धर्म के नाम है होता
पर्दाफाश  वो  छल हो

मुझे नहीं है ज्ञात
झूठ है या सच है जो भी है
कौन  यहाँ  कितना दानी
और कौन महा लोभी है

माध्यम नहीं चाहिए मुझको
ईश्वर जब सबके अंदर
मेरे धर्म का मर्म मात्र
गाँधी के विवेकी बंदर

वो बंदर ही  गुरु मेरे हैं
जो मैं अभी जिन्दा हूँ
सॅटॅलाइट के गुरु घंटालों
से नतमस्तक शर्मिंदा हूँ

जाके कहदो हार से अब की हार न मानूंगा मैं
थोथी धर्म, पाखण्ड का अब अत्याचार न मानूंगा मैं
मुझे नहीं मंज़ूर करे ईश्वर की दलाली कोई
मुखरित होने लगा मेरा है अंतर्मन विद्रोही 
मेरा कार्य नहीं चंदन को गंदी नाली में बहाना
बस अपना दीपक आप ही बनकर जग रौशन कर जाना













31 August, 2013

विधाता की स्याही

क्या तिरस्कार अपमान क्या
जब हुए प्रतिज्ञाबद्ध यहाँ
तो शोषण क्या
कल्याण क्या

खुले आँखों से देखूं मैं स्वप्न
कुछ कार्य आवश्यक करने का
जो घाव असंख्य सहे हमने
उन सब घावों को भरने का

माना की लम्बी है बहुत रात
पर आशा है की नव प्रभात 
शीघ्र हर लेगी ये तिमिर घोर
बस देहरी पर आ गया भोर

पर इस क्षण  की जो परिक्षा है 
बस सही समय की प्रतिक्षा है
नहीं मन को यूँ घबराने दो
वो अवसर तो आ जाने दो

जब पञ्चजन्य की शंखनाद
रणभूमि को  कर देगी पवित्र
उस रण के ही बेदी पर तो 
उभरेगा जीवन का मानचित्र
उस मानचित्र को  पाने को
दैनिक संघर्ष मिटाने को
मैं वचनबद्ध सिपाही हूँ
जो रच सके स्वर्णिम वर्तमान
विधाता की वैसी स्याही हूँ 










26 August, 2013

उसके होने पे शक मैं जताता रहा















आ गए है उसी मोड़ पर फिर से हम
चले थे जहाँ से कफ़न बाँधकर
की खुदको भी देंगे वो आयाम अब
जो मिला न मुझे उसको पहचानकर

वो अलग था, ये भ्रम मैं भुनाता रहा
उसके होने पे शक मैं जताता रहा
पर जीवन की तपिश में खुले रेत पर
कोई तो था जो मुझको बचाता  रहा

स्याह चेहरा मेरा,
या पाँव के छाले हों
कई घाव जो मैंने खुद पाले हों
उन सबों पे जो मरहम लगाता रहा
उसके होने पे शक मैं जताता रहा

विक्रम के कंधे पे बैताल के भाँती मैं
हमेशा ही पूछा सवाल एक अहम्
जब संघर्ष मेरा था जारी यहाँ
तेरे होने पे मुझको रहा है भरम

क्रोध में जो कहा तुम कहाँ रह गए
कहते थे हमेशा मेरे साथ हो
कहाँ हैं तुम्हारे पदचिन्ह यहाँ
अगर तुम सच में मेरे नाथ हो

तुम्हारा इशारा उन पदचिन्हों पर
जिसे मैं अपना समझता रहा
बैताल के भाँती कंधे पे मेरे
वो बन्दे तू हमेशा लटकता रहा
ये जाना तो फिर क्या रहा जानना
तुम थे उंगली पकड़कर चलाते रहे
जब भी थक जाता मैं, स्नेह से तुम्ही तो
कंधे पे अपने मुझको बिठाते रहे.









25 August, 2013

हिरण्यकशिपु अनेक, प्रहलाद नहीं है

उड़ने का मन होता है
पर  पंख साथ नहीं है
युद्ध की अभिलाषा
शंखनाद नहीं है
मंदिर की पूजा चाहूँ
मगर प्रसाद नहीं है
करदे जो उर्वरित जीवन के भूमि को
बाज़ार में उपलब्ध वैसा खाद नहीं है
मुझमे ही कम समझ होगी दुनियादारी की
हिरण्यकशिपु  अनेक, प्रहलाद नहीं है
ये देश अनोखा है , सत्ता लूटेरों का
धर्मनिरपेक्षता थोथी है राष्ट्रवाद नहीं है
मेहनत से कमाई जो रोटी दाल थी
बेईमानी के बिरयानी में वो स्वाद नहीं है
पथराई हुई आँखें , सूखे हुए जो कंठ
कैसे कहूँ कोई दुःख और अवसाद नहीं है







24 August, 2013

जूनून


















क्या किताबों में छीपा
जीवन का सार और  ज्ञान है
मैं  ने जो सार्थक है सीखा
अनुभव उसका प्रमाण है

किताबों से, परे है ज्ञान
जीवन की पाठशाला में
जो शीक्षा  निहित मानवता में
है मस्जिद न शिवाला में

फिर भी तो हम अंधों के तरह
अपने ही धुन में मस्त हैं
धर्म , जाति, गोत्र में
ढूँढ़ते हल समस्त हैं
बस निशानी और चिन्हों में
तत्व ढूँढ़ते हैं हम
प्रतिष्ठा और परंपरा में
महत्व ढूँढ़ते है हम
ढूँढ़ते हैं जवाब हर सवाल का हम मजहबी
अपने सहर में आज बन कर के एक अजनबी
इस अजनबी से सहर में ,न चैन न सुकून है
खुद को ही मिटाने का  कैसा ये जूनून है








22 August, 2013

मौन



















क्या हुआ जो है न कोई
राह भी स्तब्ध है
जो खुशी के चंद पल हैं
मौन में उपलब्ध हैं

कोई तो श्रोत होगा जो
भावों के असंख्य प्रकार  हैं
मेरे जो वक्तव्य हैं
वो मनः स्थिति  का ही विस्तार हैं

विस्तार हैं वो खलबली के
जो विचारों में कभी
और कभी वो गूंज हैं
कभी मौन मन की हैं छवि
कभी तो अंतराल है
विचारों के घने  जंगल में
और कभी कर्फ्यू की भाँती
पसरे अपनों के दंगल में
जो भी हैं लहरों के तरह
उपरी सतह के  हिलोरे हैं
जिसे अभिव्यक्त करने को
कई सीमाएं हमने तोड़े हैं




21 August, 2013

रक्षा बंधन

बंधन है रक्षा सूत्र है बहनों का प्यार है
कितना सुखद  ये राखी का त्योहार है
बचपन के वो नोक झोक हर बात पर हुडदंग
लगता था यूँ छिड़ा हुआ  पानीपत का जो हो जंग

उन कुछ क्षणों को ह्रदय में जीवंत देख कर
मैं मांगता हूँ आज आशीर्वाद ये प्रखर
बहना तुम्हारे स्नेह का सदैव  ऋणी मैं
तुम्हारी कृपा रही पराजित न  हुआ मैं
अब कुछ नहीं बस तेरा आशीर्वाद चाहिए
स्नेह के अमृत का दैविक स्वाद चाहिए

काल चक्र का अब तो खेल देखिये
बहन कहीं है और, भाई भी सुदूर है
भले लगे साधारण ये धागा मात्र ही
इसमें समाहित बहन का प्रेम प्रचुर है




 









19 August, 2013

ईश्वर के किसी योजना का हिस्सा हूँ


















अब तो बस एक ही इक्षा है आनंद मिले
सुख दुःख , हर्ष और विषाद का जो चक्कर है
उनसे दूर कहीं जीवन से जा  स्वछंद मिलें

हार और जीत के खेल में उलझा मन है जो
परे उसके अभिव्यक्ति पे ध्यान मेरा हो
रौशनी हो मेरे  प्रारब्ध में जहाँ घनघोरतम अँधेरा हो

जीवन का पर्याय  मात्र क्या आजीविका है
या फिर ईश्वर के किसी योजना का हिस्सा हूँ
जिस कहानी का कोई चरमोत्कर्ष (climax) नहीं
शायद रचयिता का वैसा गतिमान किस्सा हूँ








13 August, 2013

माँ

एक सुबह  मुझको युहीं
यादें पुरानी गुदगुदा गयी
बचपन के कुछ अनमोल क्षण
मानस पटल पर आ गयी
जैसे कोई एहसास
करता स्पर्श मेरा ह्रदय को
माँ का आँचल जिस तरह
हर लेता था कोई भय जो हो
जिनकी हाँथो को पकड़कर
उठाया था पहला कदम
माँ की उन हाँथो को
आज भी मेरा शत शत नमन
मैं तो हूँ विस्तार तेरा
हूँ तेरी अभिव्यक्ति जीवंत
हूँ मैं जो ,जैसा भी हूँ 
 कृपा जो तेरी रही  अनंत


12 August, 2013

सम्मान से जीने का मानचित्र हो प्रत्यक्ष















मैं चाहता हूँ बस सम्मान से जीना
जो डीग्री से नहीं हैं ,
 उपाधी से नहीं है
उध्वेलित जो मन है
उसके समाधि से नहीं है
नहीं है वो सम्मान
किसी मेडल में प्रमाण में
और नहीं है महाप्रयाण में
जीवन जो मिला है ,कोई कारण तो होगा ठोस
या युहीं रहे जीते अनभिज्ञ और मदहोश
वही कारण और उद्देश्य अगर जीवंत हो जाए
भटकाव का सिलसिला त्वरित अंत हो जाए
जीवन को मिलजाए वही एक मात्र लक्ष्य
सम्मान से जीने का मानचित्र हो प्रत्यक्ष











10 August, 2013

होसले की उड़ान है ,सपनो के आकाश में







पंख फैलाके जो उड़ने का ईरादा हो
तो फिर आइये गरूड़ को अपना गुरु माने
उनमुक्त उड़ने का अलग है कायदा  क़ानून
जो ट्रैफिक के रूल्स हैं गुरुदेव से जाने

बत्ती न हरी लाल है, न जेब्रा क्रोस्सिंग
न मिलेंगे आपको हवलदार लल्लन सिंह
कोई हाँथ न दिखलाये, चलान न काटे
कोई मजबूर हो  के इनको हरी नोट न बांटे

प्रतिस्पर्धा नहीं कोई , न कोई होड़ है
पदचिन्ह खोजना नहीं , न कोई मोड़ है
होसले की उड़ान है ,सपनो के आकाश में
मिले आपको आनंद प्रथम प्रयास में
स्वागत है आपका देखिये दृश्य विहंगम
एक उड़ान पुनः हो  भुला के सारे ग़म ….







09 August, 2013

आज़ादी

















कोई विद्रोह का स्वर , 
मेरे भी अंदर मचलता है 
कहीं कोई आग है ,
जो मेरे सीने में भी जलता है 
हम आज़ाद है पर ये ,कैसी आज़ादी है 
हर एक स्वर प्रबल है जो अलगाववादी है 
पार्टी के नेता कई , देश का कहाँ कोई 
हमारे रहनुमाओं ने कुछ ऐसी बीज़ थी बोई
हम आज भी कुंठित हैं, परेशान हैं 
क्यूंकि गलत हांथों में देश का कमान है 
कैसे कहें की अच्छा सारे जहान से 
वो देश है अपना हिन्दुस्तान हैं …
 
 





07 August, 2013

जन गन मन

नीयत निष्ठा नेतृत्व और नियंत्रण का अभाव
हमारे सरकार का यही तो है स्वभाव
घटना होती है, खेद व्यक्त होता है
होती है कठोर निंदा
पर कोई जिम्मेदार नहीं ,ना ही कोई शर्मिंदा

अपने सीमाओं के रक्षा में वचनबद्ध
उस सैनिक का जीवन
तुम्हारे लिए  मात्र एक अंक है
और तुम्हारी संवेदन शुन्यता
भारत माँ के माथे पे कलंक है

सुरक्षा से समझौता
संस्थाओं का दुरूपयोग
और अंधाधुंध लूट
ऐसे में  प्रजातंत्र पर
तुम्हारी आस्था अटूट,
के स्वांग से जारी डेमोक्रेसी का ह्रास एवं पतन
कैसे गाऊं मैं अब ´जन गन मन´











06 August, 2013

गरीबी वस्तुतः मानसिक अवस्था है

बस युहीं मैंने बोल दिया
की गरीबी वस्तुतः मानसिक अवस्था है
और जो अधिकृत सरकारी व्यवस्था है
उस में कहाँ गरीबी की गुंजाइश है
मेरी तो बस एक ही ख्वाइश है
मेरे खानदान ने देश पे सदैव राज किया है
क्यूंकि गांधी के आदर्शों से हमें क्या लेना 
हम तो उनके नाम की खाते हैं
सिर्फ वादों से भारत निर्माण करते हैं और 
हर पांच वर्ष में हम नया भारत बनाते हैं

क्या हुआ जो रोटी नहीं है
पिज़्ज़ा है बर्गर है मल्टीप्लेक्स है मॉल है
और तुम कहते हो गन्दा माहौल है
कभी 10 जनपथ आओ और देखो
वहीँ से हम भारत निर्माण करते है
विकास के इस दौर में हमारे  हाँथ
अब आम आदमी के गिरेबान तक बढ़ते हैं





 

जोकर














अपना कहाँ है कोई , महफ़िल में अकेला मैं
मील का पत्थर या रस्ते का कोई ढेला मैं
क्या हूँ मैं मार्गदर्शक या नियति में बस ठोकर है
जीवन के इस सर्कस में एक ऐसा भी जोकर है
जो हँसता है हँसाने को, ताकि दुनिया मुस्कुराये
मन की जो व्यथा अंदर रहता है वो दबाये
संघर्ष की कहानी दफन किसी कोने में
सर्कस की सार्थकता जोकर के ही होने में
जाना कहाँ यहाँ से, मरना  यहाँ जीना है
हम सबकी जो कहानी बस  जोकर की दास्तान है

 


05 August, 2013

अब नहीं कोई भी ग़म है, ना शिकायत है

अब नहीं कोई भी ग़म है, ना शिकायत है
बस एक प्रश्न है जो सदैव मुझे सताता है
इंसान इस दुनिया में क्यूँ आता है ?
वजह तो होगी कोई ,कोई तो कारण होगा
मेरा जो प्रश्न है क्या उसका भी निवारण होगा

जब ज्ञात हो की जीवन-मरन सच्चाई है
और ये सच है की एक दिन सभी को जाना है
निवाला छीन के मुख से असंख्य लोगों के
ये कौन से विकास का बहाना है

आंकड़े हैं विकास के , पर विकास नहीं
इंसान को इंसान पर बिश्वास नहीं
जवाब कोई नहीं चाहता देना है यहाँ
कहते बस हैं की
जादू की छड़ी मेरे भी तो पास नहीं

कार्ड कोई भी ´आधार´ या ´राशन´ वाली
कुछ भी बदला नहीं सिर्फ था भाषण खाली
निवाला छीना जंगल ज़मीन जल भी गया
आज़  गिरवी है और आने वाला कल भी गया
गया इतिहास , भविष्य डगमगाता है
ऐसे में कहाँ भारत निर्माण नज़र आता है













04 August, 2013

Happy Friendship day

यूँ तो कोई दिन नहीं होता दोस्ती के लिए
समय कहाँ है दुनिया में बेरुखी के लिए
जीवन के भागदौड़ कठीन रस्ते में
यही वो दोस्त है जो रास्ता दिखाते हैं
धन्य वो हैं जो ऐसे दोस्त पाते हैं

सहकर्मी अनेक दोस्त मुट्ठी भर हैं मेरे
जैसे कोई जलश्रोत हो तपिश में, रेगिस्तान में
अगर मिलना हो उनसे मेरा ही प्रतिबिम्ब हैं वो
मिलेगी उनके ही गुणों की झलक ,मेरे पहचान मे









02 August, 2013

FDI RTI CBI

सारी समस्या का महज़ एक ही दवाई है
सरकार के नज़र में वो मात्र FDI है
भारत निर्माण हो रहा
पूंजी निवेश हावी  है
विकास से विनाश की
ये यात्रा चूनावी है

दूसरा जो ढोंग है कहतें हैं RTI है
खामोश रहने में , यहाँ सबकी भलाई है
अधिकार तो दिखावा है कोशिश है सब छिपाने की
मुहीम झूठी लगती है इंसाफ फिर दिलाने की

तिसरा मज़ाक जो, वो तो CBI है
सरकार के दवाब में इनकी हर कार्यवाही है 
अन्वेषण का तंत्र ये ढोंग है बेईमानी है
किसी को दण्ड न मिले जैसे वचन ये  ठानी है

समस्या तो यूँ अनेको है झांके जो गिरेबान में
हल ढूँढ़ते रहते है हम मजहबी जुबान में











01 August, 2013

प्रखर राष्ट्रवाद

इतिहास गांधी नेहरु के परे
भी है इस देश में
कोई सपूत था यहाँ
वल्लभ भाई के भेष में

कहने को प्रजातंत्र है
सोंचो तो तानाशाही है
उनके हर एक फैसले में
अपनी ही तबाही है

अलगाववाद हावी है
राजनैतिक अवसरवाद है
प्रासंगिक आज भी
सरदार का प्रखर राष्ट्रवाद है





















         






31 July, 2013

एक मात्र लक्ष्य

अफ़सोस नहीं मुझको इंसान होने का
बस खेद है ह्रदय में बेजुबान  होने को
उठाया नहीं आवाज़ अन्याय देख कर
कोई  अपना नहीं है ये असहाय देख कर

'क्या फ़र्क पड़ता है ' मैं ये सोंचता रहा
अंतर्मन का अंतरद्वंद कचोटता रहा
अपने ही विचारों को जो गुलाम आदमी
आ सकेगा क्या किसी के काम आदमी

गेहूँ की लड़ाई में कुरबां गुलाब है
दोनों में समन्वय हो मेरा ये ख्वाब है
तिनके का सहारा सही, बनूँगा मैं अवश्य
आ सकूँ किसी के काम, मेरा एक मात्र लक्ष्य





अस्तित्व की लड़ाई

दैनिक संघर्ष,स्याह चेहरे
आजीविका  की जद्दोजहद 
से परिभाषित अस्तित्व की  लड़ाई (struggle for existence)
जो हमारी दिनचर्या का अहम हिस्सा है
 वस्तुतः विकाश से विनाश के
६५ वर्षीया यात्रा का ही तो किस्सा है 

 डार्विन होते तो शायद वो भी घबराते
अगर वर्तमान में भारत भ्रमण को आते
देखते की ये कृत्रिम अस्तित्व की लड़ाई
राजनैतिक दीवालियेपन की पराकाष्ठा  है
और बस एक राग डेमोक्रेसी में हमारी आस्था है
चुनौती ये की इस लड़ाई में
कोई सर्वश्रेष्ठ और योग्य भी नहीं बच पाता है
प्रश्न अनायास मानस पटल पर उभर आता है
 की क्या सच में ´भारत भाग्य विधाता है´?


29 July, 2013

साहित्य के भी रण में शंखनाद चाहिए

कलम है विद्रोही
कागज़ नाराज़ है
कैसे हो समन्वय
दुर्लभ ये काज है

स्याही की बगावत
की कागज़ अछूत है
विचारों में चक्रवात
पुख्ता सुबूत है

क्या सत्य को कभी
करोगे व्यक्त तुम
या छलते  रहोगे
हमें प्रेमराग से
अब हार गया हूँ तेरे
दूषित दिमाग से

चेतावनी मेरी
आगे जो लेखनी
कलम उठे तो सत्य की ही बातचीत हो
दिमाग का नहीं कलुषित गणित हो
सभी `वाद ` से परे (जातिवाद , धर्मवाद, आतंकवाद) संवाद चाहिए
साहित्य के भी रण  में  शंखनाद चाहिए



 

28 July, 2013

वापस मुझे अब मेरा सम्मान चाहिए

जब कुछ समझ न
आये मैं हूँ आम आदमी
अपनी उधेड़ बुन में मैं
गुलाम आदमी
सत्ता से  पराजित हुआ गर शख्स कोई है
उसी प्रतियोगिता का मैं परिणाम आदमी

किसको कहें सरकार, सरकार कहाँ है
जो छुले ह्रदय को वैसा प्यार कहाँ है
सुकून जो ख़रीद सकूँ इस जहान में
कोई तो बतादे वो बाज़ार कहाँ है

कहाँ है वो आकाश कभी जो था नीला
हम फेफड़ों में भर रहे वायु विषैला
पानी का पीलापन अब दिखती है आँखों में
भारत निर्माण का कैसा है ये सिलसिला

जरूरतों के पदानुक्रम (Hierarchy of needs)
के निचले पायदान पर
टकटकी लगाए हुए  हम आसमान पर
पुकार रहे तुमको समाधान चाहिए
 फेके हुए चंद टुकड़े रोटी के नहीं मंज़ूर
वापस मुझे अब मेरा सम्मान चाहिए




27 July, 2013

ये यात्रा अनोखी जीवन की दास्ताँ है


















कुछ तो विचार होंगे
गतिमान जिंदगी है
कोई विशाल लक्ष्य होगा
अनजान जिंदगी है
हम तो हैं मात्र राही
चलते हैं हर डगर पर
कुछ परिचित सी राहें
कभी अनजान किसी सफ़र पर
ये यात्रा अनोखी जीवन की दास्ताँ है
कभी अकेला मैं हूँ कभी तो कारवां है
अनुभूति जो ह्रदय में
अनुभव मिला जुला है
कभी रहा अकेला
कभी हमसफ़र मिला है
बाहर की यात्रा हो
या अंतर्मन का जो भ्रमण है
मिला स्नेह पथ पे जिनसे 
उन सब को मेरा नमन है





26 July, 2013

छत्तीस का आँकड़ा

जब भूख पेट को जला रही हो
आंकड़े देश को चला रही हो
ऐसे में सच बस इतना है
फ़र्क नहीं पड़ता इनको
तुम भूखे हो या प्यासे
आओ मिलकर देखें हम
डेमोक्रेसी के तमाशे

एक पांच और बारह हो
हो सताईस या तैंतीस
एक आँकड़ा है ऐसा
हम जिसको कहते छत्तीस
यही मात्र वो आँकड़ा है
जो जनता सरकार को बाँटे
गूलाब तेरी गेहूँ भी तेरा
हिस्से हमारे बस काँटे

भूख तो बस होता सेक्युलर है
क्या हम बस आँकड़े खायें
तुम्ही बतादो  जादूई जगह वो
जहाँ हम अपनी भूख मिटायें





 

25 July, 2013

तुम छिडकते रहना नमक युहीं मेरे घावऔर फोड़ों पर ....

षड्यंत्र नहीं तो क्या है और
किसके हांथों है बागडोर
लगता यूँ देश चलता हो
बाबा अली उसके असंख्य चोर
ये अली बाबा हैं मूक बधिर
न कुछ सुनते न बोलते हैं
बीन हाँथ किसी और के है
ये सर्प के भाँती डोलते हैं
योजना आयोग भी इनका है
चोरों के दाढ़ी तिनका है
जो सपने झूठे दीखा रहे
ज्ञात नहीं वो किनका है
हो रही गरीबी दूर यहाँ
जनता बस है मजबूर यहाँ
भारत निर्माण है जोरों पर
तुम छिडकते रहना नमक युहीं
मेरे घाव और फोड़ों पर ....

24 July, 2013

योजना आयोग

परिभाषा गरीब की
निर्धनता से नहीं आंकड़ों में खोई होती है
सच इतना है की वातानुकूलित कमरे में कोई
योजना आयोग इसके जहरीले बीज़ बोती है
और तब जो मिथ्या सत्य का रूप युहीं ले लेती है
उसमे गरीबों की संख्या निरंतर घटती जाती है
हम विकास के नए आयाम तय करते हैं
पर जिनके थाली से गायब हुई रोटी
वो इन आंकड़ो से डरते हैं
डरते हैं की कैसी सरकार है
जो आज़ादी के वर्षों बाद
खाद्य सुरक्षा की बातें करती है
यथार्थ तो ये है की जनता
कुपोषण और भूख से पल पल मरती है
उस वर्ग का शायद ही कोई प्रतिनिधी
उन कमरों तक पहुँच पाता है
जहाँ गरीबी नहीं अपितु गरीबों को
हटाने का षड्यंत्र रचा जाता है .

22 July, 2013

गुरु पूर्णिमा













जीवन के आदि अंत में जो अंतराल है
वो रिक्त जो स्थान है कितना विशाल है 
आरंभ विद्या का तुमसे ही तो है माँ 
स्वीकार करो नमन आज गुरु पूर्णिमा 

गर तुम न होती ,होता क्या मेरा कोई वजूद 
तुम्हारे शिक्षा का ही तो जीवंत मैं सबूत 
मेरे ललाट पर है जो ये तिलक ये अक्षत 
जीवन के उस प्रथम गुरु को मेरा दंडवत 





 

18 July, 2013

दायित्व


दायित्व से अपने तुम 
कंधा चुराते चलना 
करना बयानबाजी 
खेद शोक व्यक्त करना 
कहना जो हो रहा है 
षड्यंत्र विरोधी का 
बच्चों की हत्या या फिर 
आतंक महाबोधि का  

नौकर हो या हो अफसर 
या राजनेता कोई 
अगर है वो अपराधी 
तो संकोच फिर है कैसा 
मुबारक हो तुमको ही तुम्हारे 
मुआवजे का पैसा
 
जिसने किया उपद्रव  
उसका क्यूँ  महिमामंडन  
क्या मूक बधिर हो तुम 
सुनते नहीं जो क्रंदन .....

अपराधी तो अपराधी 
क्या सेक्युलर क्या कोमुनल 
हो जो भी वो कुकर्मी 
पहले करो तुम दंडित 
कुतर्क देना छोड़ो 
वो दलित हो या हो पंडित 

 




 
 









17 July, 2013

क्रायिसीस का डेमो देना डेमोक्रेसी है
























अब तो हर रोज़ कोई घटना झकझोरती है
जो है विश्वास अंतर्मन में उसे तोड़ती है
कहाँ वो देश जहाँ जवान और किसान की जय
कहाँ ये देश जिसे नित नए अपमान का भय

जब ज्ञात हो समस्या समाधान तो हो
क्यूँ भविष्य की चिंता पहले वर्तमान तो हो
रोटी की जगह तुम धर्म और जाति देखो
हो रहा जो उसे बेशर्म की भाँती देखो

दलों के दलदल में देश पे संकट भारी
घाव देके, मरहम पर सबसिडी की तैयारी
आज क्रायिसीस का डेमो देना डेमोक्रेसी है
यही प्रजातंत्र की परिभाषा बनी स्वदेशी है ..










 

14 July, 2013

मैं भी तो हूँ दोषी






झूठ ज़ोर से बोलके 
सच को दिया दबाय 
सत्ता के गलियारे 
में तो मचा  है हाय हाय 
देश का बंदरबांट हो रहा 
नित योजना नयी बना के 
जनता को ठग रहे निरंतर 
सब्ज़ बाग़ दिखलाके 
समाचार भी सही कहाँ है 
हावी हैं सताधारी 
छद्म सेक्युलर कहलाने की 
होड़ में मारामारी 
जो सरकार को था करना 
अब न्यायालय करती है 
फिर भारत निर्माण का 
कैसे ये दंभ भरती है 
जल जंगल ज़मीन का सौदा 
अन्धाधुन है जारी 
देश विकास के पथ पर है 
कहते आंकड़े हैं सरकारी 
हम तो बस युहीं मौन हैं 
पर अब चुभती खामोशी  
अब लगता मुझको भी है 
की मैं भी तो हूँ दोषी 




 




12 July, 2013

मेरा भारत महान

काश कोई होता जो मन की पीड़ा हर लेता
और भर लेता अपने बाहों में
और झाँक कर कहता मेरे निगाहों में
की अपराध नहीं संवेदनशील होके
चेतना शून्य होना
पर खेद है शायद चेतना शुन्य होना
गंभीर अपराध है
ऐसे में ये सोंचना भ्रम है
की कोई आये
और पीठ थपथपाए
जब रोटी थाली से गायब हो रही हो
और प्यास से कंठ सुखा हो
और उस रोटी की जंग में उलझा
चेहरा जो मेरा नहीं है
ऐसा सोंच के आश्वस्त मैं
भविष्य की योजना बना रहा हूँ
ज्ञात नहीं किस रस्ते जा रहा हूँ
क्या शिक्षा महज इस लिए
की अपनी अकर्मण्यता को
साबित करने में लगादें अपना बुद्धि और ज्ञान
फिर कैसे कहें मेरा भारत महान ..............

10 July, 2013

क्या फर्क पड़ता है




















क्या फर्क पड़ता है
जब आंकड़ों में विकास जारी  हो
और सामूहिक आत्महत्या की तैयारी  हो
रोटी के लिए संघर्ष
पानी विष का प्याला
त्रासदी और महामारी
उसमे भी घोटाला
मौत तो सेक्युलर है
न टोपी देखेगी न ललाट पर चन्दन
बस अचानक ही टेटुआ दबाएगी
और उसी क्षण सांस थम जायेगी
आज शर्म से नतमस्तक
ईमानदारी है
लूट का अखिल भारतीय कार्यक्रम
का  सीधा प्रसारण जारी है
चलो मूक दर्शक बन रियलिटी शो देखते हैं
क्या फर्क पड़ता है  

09 July, 2013

चारदीवारी












न द्वार न वातायन बसचारदीवारी है
जैसे किसी बक्से में बुद्धि कैद हमारी है
मन की नहीं सुनता मैं ह्रदय भी मौन रहता
न है कोई जिज्ञासा इस खंडहर में कौन रहता
फिर जो नाटक है जो नौटंकी, बुद्धि की ही तो सृजन है
विचारों का बगीचा या कैक्टस का कोई उपवन है
काँटों की इस दुनिया में फूलों की चाह रखना
कोई तो लक्ष्य होगा जिसपे निगाह रखना
वो लक्ष्य मात्र ही तो स्वप्न है राही का
ये मार्ग तो कठिन है पर नहीं तबाही का
जो खोले मन की खिड़की ह्रदय के पट भी खोले
डब्बाबंद जो बुद्धि है स्वछंद हो के बोले
उसी उद्घोष का मैं इंतज़ार कर रहा हूँ
मन और मस्तिष्क दोनों को तैयार कर रहा हूँ
ह्रदय की भावना अब विचार के माध्यम से
रचेगी अनोखी रचना नए कुची और कलम से ...........

08 July, 2013

अंतराल

 होश काव्य है


आक्रोश काव्य है


और काव्य है मेरे


मन के भाव आवेष


मेरे विचारों की कड़ी भी एक काव्य है


अंतर्नाद ह्रदय की भी काव्य का है रूप


अस्तित्व मेरी भी तो काव्य मात्र है


सृजन विनाश की एक अक्षय पात्र है


अमृत है विष भी है प्रारब्ध में मेरे


वही झलकता है हर शब्द में मेरे


मेरी हर एक कृति अभिव्यक्त भाव हैं


इश्वर के शब्दकोष का ही ये प्रभाव है


की भाव शब्दों  के परे सागर विशाल है


जो है महत्वपूर्ण बस अंतराल है ........























07 July, 2013

महाबोधी में आतंक








फिर रोया मन देखके महाबोधी में  आतंक 
पोत गया माथे पे देश के फिर से कोई कलंक 
जारी है नेताओं का खेद शोक संदेष 
रंगे सियारों को पहचानो छिपे बदल के भेष 
छिपे बदल के भेष देश का कर रहे  बंटाधार 
सत्ता इनके हांथों में यही बने सरकार 
यही बने सरकार रो रही भारत माता 
वन्दे मातरम् गाये जो कोमुनल हो जाता 
यहाँ वही सेकुलर जो तुस्टीकरण करेगा 
क्या मौन रहे युहीं हम जबतक अपना कोई नहीं मरेगा 
नम  आँखें हैं मेरी और बोझिल ये मन है 
कैसा है राष्ट्र कैसा ये  जन गन मन है 

05 July, 2013

ज़ीगर मा बड़ी आग है

ज़ीगर  मा बड़ी आग है ,तो बीड़ी  जलालो भाई
किसी के खुशियों को क्यूँ जलाते हो
जख्म भी देते हो नासूर भी बनाते हो
और फिर बाद में मलहम भी लगाते हो
पर इस क्रम में कोई विश्वास  खो देता है
किसी का अंतर्मन रो देता है
कोई मौन हो जाता है कोई गला फाड़ चिल्लाता है
तुम्हारे अंदर की आग कहीं धैर्य न दे किसीका तोड़
आक्रोश हम में भी है, हो जाए कहीं जो भंडाफोड़
याद रहे कभी हमारा भी वक्त आएगा
तब देखना है की तुम्हारे जख्मो पर कौन मलहम लगायेगा...........


03 July, 2013

मौन की गूँज







मैं वही हूँ कागजों  में है समाया गुण मेरा
प्रमाण पत्रों से परे कुछ और भी है धुन मेरा
ये वो टुकड़े कागज़ के अर्जित किया खो के सुकून
जीवन के रेस  में युहीं दौड़ रहा अन्धाधुन
पाया है क्या ,पाना है क्या, दौड़ते जाना है क्या
कोई नहीं जो इन सवालो का सटीक सुझाव दे
अंसंख्य है बैठे यहाँ की फिर नया कोई  घाव दें
जो जख्म है जो घाव है जो  नित नए  तनाव है
 उनके सहारे मौन में भी गूँज ढूँढता हूँ मैं
कोई तो होगी प्रभात  इस अँधेरी रात की
विश्वास मन  में लिए प्रकाशपुंज ढूँढता हूँ मैं 

30 June, 2013

गेहूं भी चाहिए ,चाहिए गुलाब भी

हम अपने गाँव को युहीं अचानक छोड़ आये हैं 
पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा तो गवायें हैं 
न सौंधी खुशबू माटी की न खेतों की हरियाली  
अपना कौन है यहाँ जो हैं सभी पराये हैं 
सोंचा था न सपने में कभी दिन ऐसा आएगा 
ह्रदय के भाव पर मस्तिष्क आधिपत्य पायेगा  
गेहूं  भी चाहिए ,चाहिए गुलाब भी 
कुछ प्रश्न उलझे से उनके जवाब भी 
दिल और दिमाग दोनों के मतभेद से परे 
जीवंत हो सके कुछ ऐसे ख्वाब भी 

28 June, 2013

खानाबदोश







 
निकला था इस सुबह भी ज़ज्बा था ज़ोश था
मालूम हुआ की मैं तो खानाबदोश था
बस भाग रहा था मैं कोई तलाश में
उलझा हुआ था ऐसे किसी प्रयास में
सोंच रहा मैं था कोई तो लक्ष्य हो
जीवन का मानचित्र कभी तो प्रत्यक्ष हो
और सामने आजाये कोई रूपरेखा ढोस
मिलजाए आनंद का ऐसा कोई शब्दकोष
की जिसके सहारे वर्तमान लिखूं मैं
भूत - भविष्य से पृथक पहचान लिखूं मैं
लिखूं की पदचिन्हों पे नमंजूर चलना है
उसी रचयिता के सांचे में ढलना है  
अब उससे कम कोई बाकी नहीं इच्छा
जीवन ही प्रार्थना मेरी बस उसकी प्रतीक्षा .....

26 June, 2013

´सर्वे भवन्तु सुखिनः ´

देश अपना तो  सदियों से है अटल 
ये कैसी खलबली कैसा है कोलाहल 
हैं मुट्ठी भर वे लोग जो प्रमाणपत्र बांटते 
बनाते हमको हैं सेक्युलर या कम्युनल 

घृणा का मन्त्र मात्र सत्ता का पर्याय है 
जन जन में हो दुरी यही उपाय है 
चन्दन हो टोपी हो श्रद्धा मेरी अपनी 
इस बात पर क्यूँ फिर इतनी बेचैनी 

ये कौन सा भारत जिसका निर्माण हो रहा 
ढकेल के पतन पे गुणगान हो रहा 
चोरों के फ़ौज को करके इकठा 
सम्पूर्ण देश का अपमान हो रहा 

हिन्दू होना क्या कोई गुनाह है 
तुम्हारी क्या मनशा क्या तुम्हारी चाह है 
अलगाव का डफली बजाते रहो तुम 
प्रजातंत्र का खिल्ली उड़ाते रहो तुम 
´सर्वे भवन्तु सुखिनः ´ में हमारी अटूट आस्था 
भारत के उन्नति का है ये  मात्र रास्ता ..........

23 June, 2013

उत्तराखण्ड त्रासदी




तांडव प्रकृति का जो है घाव दे गया 
मानस पटल पे मेरे तनाव दे गया 
की शोक की सीमा क्या अपनों तक सीमित है  
अपने अस्तित्व से ही अलगाव दे गया 

बस आंकड़ो के क्रम में कुछ आज खोया है 
मन मेरा बार बार उध्वेलित हो रोया है 
क्या वक़्त आ गया है पुनः विचार हो 
अंकुश लगे न और आगे अत्याचार हो 
प्रकृति से खिलवाड़ है कौन जिम्मेदार 
कैसी व्यवस्था है ये है कौन सी सरकार 

सेना के लोग हैं जो जीवन बचा रहे 
नेता हवा में युहीं चक्कर लगा रहे 
कुछ दंभ में हैं चूर की हम है सेकुलर 
तू आम आदमी है गर मरता है तो मर 

संवेदना मेरी ये संकल्प बनेगी 
भारत निर्माण का विकल्प बनेगी 
सृजन पुनः विनाश के बेदी पे होना है 
नम आज ह्रदय का हर एक कोना  है .......


 


17 June, 2013


Friends I am sharing links to some of  my writeup across and beyond disciplines. Its my humble way to contribute to the society....



Science







 

Development


Environment


 

Entrepreneurship, Motivation, Leadership
















 

 

 

Society






 
Democracy, Politics






 

Education







 

Career
http://www.merinews.com/article/science-journalism-a-passion-driven-field/15822464.shtml

11 June, 2013

विष्णु के भांति सर्प सैया पर लेटा मैं ..............


 मुझे नहीं गम है की मैं क्यूँ ऐसा हूँ
 खोटा सिक्का हूँ या चिल्लर पैसा हूँ
  लोग कहे मैं हूँ अनाथ अभागा भी
चरखे पे का सूत और कच्चा धागा भी
दलित हूँ या फिर गली का कोई दबंग हूँ
शव यात्रा का मौन या फिर कोई हुड़दंग हूँ
जो भी हूँ पर एक बात तो पक्की है
हूँ वही इश का अंश जो सब में विधमान है
साँसों का स्पंदन इसका शाश्वत प्रमाण है
भारत के भूमि पर जन्मा उसका ही बेटा मैं
विष्णु के भांति सर्प  सैया  पर लेटा मैं

 

चाणक्य को है जिसकी तलाश वो चंद्रगुप्त हूँ .............


 
गेहूँ और गुलाब दोनों ही प्यारी है
गेहूँ के लिए जंग अभी लाचारी है
हैं दोनों ही महत्वपूर्ण जीवन के लिए
तब भी  भूख सुंदरता पर भारी है
युद्ध जीत और हार के लिए होता है
और मिले अधिकार के लिए होता है
परिवर्तन का मार्ग मात्र क्रान्ति में है
बीज़ शोर की छिपी घोर शान्ति में है
उसी मौन क्रान्ति का मैं सिपाही हूँ
नूतन इतिहास रचे वैसी मैं स्याही हूँ
तपिश पेट की ह्रदय को जब जला रही हो
और चोरों की फौज़ देश को चला रही हो
ऐसे में जो खून किसी का न खौले
आवाज़ करे न कोई ,न कोई मुख खोले
फटेगी ज्वालामुखी फिर एक दिन जरूर
टूटेगा सताधारी का लंबा गुरूर
इन्कलाब का वही जवालामुखी सुसुप्त हूँ
चाणक्य को है जिसकी तलाश वो चंद्रगुप्त हूँ