30 May, 2010

रोया क्यूँ


रोया क्यूँ
देस विकास के पथ पर है
मल्टीनेशनल है
बर्गेर है पिज्ज़ा है
शोपिंग माल हैं
और है केबल टीवी
शायद तुम दुखी हो
क्यूंकि माल के पीछे है झोपड़ी
भूख के पीछे राजनैतिक खोपड़ी
पिज्ज़ा रोटी दाल क्यूँ नहीं
क्यूँ विकास आंकड़ो में उलझी है
और भूख सच्चाई है
शायद यही कारण होगा
तेरी आँख भर आयी है

प्रेम परिभाषा से परे ...........


जब प्रश्न ही उत्तर हो तो
फिर ये कैसी जिज्ञासा है
प्रेम अनुभव ही मात्र है
तो कैसी परिभाषा है
जब अस्तित्व ही जीवन का
है प्रेम से उत्पन्न
और हर दिशा में है
जीवंत उदाहरण
भौरे की गुंजन हो या
चिड़ियों की चहचहाहट
हो फूल का खिलना
या प्रेयसी की आहट
वसुधा पे जो भी है
वो है प्रेम का विस्तार
हर ह्रदय के स्पंदन
में बस एक ही है सार
रचियता तुम्हारी लीला
का आधार है यही
सागर अथाह है
मजधार है यही
मैं तो हूँ नतमस्तक
तुम्हारे मंच पर
और दुखी हूँ लोगों के
छल प्रपंच पर
मुझे भी प्रेम की शाश्वत अनुभूति दो
हो प्रेम ही उत्पन्न वो पीड़ा प्रसूति दो
अनुरोध सुनो प्रभु हो प्रेम का जनम
एक मात्र उसी अनुभव में थिरके मेरे कदम
परिभाषा कोई हो अनुभव जरूरी है
प्रेम के अभाव में जीवन अधूरी है ................

23 May, 2010

तेरी गलियों में न रखेंगे कदम


तेरी गलियों में न रखेंगे कदम

आज के बाद

क्यूंकि मुन्सिपलिटी रोड बना रही है

ऐसा सुनने में आया है

तो अब ये गाना मैं मोंसून में गाऊँगा

जब बारिश में रोड फिर से होजायेगी गली

फिर भी गीत यही गाऊँगा

जब अगले वर्ष फिर से सड़क निर्माण का निकलेगा टेंडर

तब तेरी गली आऊंगा

16 May, 2010

ज्वालामुखी.........


ज्वालामुखी के मुख से
निकलते हुए लावे की तरह गर्म
मेरा कुंठित एवं क्रोधित मर्म
चोट बाहरी नहीं होता
कभी लगता अंदर भी है
ज्वारभाटा उठती है यूँ
भीतर कोई समंदर भी है
प्रश्न और उत्तर के परे अनुभव
कभी झकझोर जाते हैं
कभी भाव आँखों का सहारा ले
आंसू बन निकल आते हैं
पर माध्यम जो भी हो भावनाएं हमेशा
सीमाओं का अतिक्रमण करते है
तभी तो अचानक युहीं लावा की तरह
ये भाव मानस पटल पर बिखरते हैं
मेरा वजूद इन्ही सुसुप्त ज्वालामुखी की भाँती है
जब बिष्फोट होता है , लोग कहते हैं जज्बाती है .............

ज्वालामुखी.........

ज्वालामुखी के मुख से
निकलते हुए लावे की तरह गर्म
मेरा कुंठित एवं क्रोधित मर्म
चोट बाहरी नहीं होता
कभी लगता अंदर भी है
ज्वारभाटा उठती है यूँ
भीतर कोई समंदर भी है
प्रश्न और उत्तर के परे अनुभव
कभी झकझोर जाते हैं
कभी भाव आँखों का सहारा ले
आंसू बन निकल आते हैं
पर माध्यम जो भी हो भावनाएं हमेशा
सीमाओं का अतिक्रमण करते है
तभी तो अचानक युहीं लावा की तरह
ये भाव मानस पटल पर बिखरते हैं
मेरा वजूद इन्ही सुसुप्त ज्वालामुखी की भाँती है
जब बिष्फोट होता है , लोग कहते हैं जज्बाती है .............

पहचान कौन ?


पहचान कौन ?
एक मात्र सवाल और फिर मैं मौन
पहचान कौन?
क्या नहीं पहचाना मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ
तुम्हारे ही अंदर रहता हूँ
और कहता हूँ की कभी तो अंतर्मुखी हो
मुझसे भी करो मुलाकात
न सही लंबी चर्चा कुछ तो करो बात
कभी तो हो रूबरू अपने यथार्थ से
अंतर्मन का कृष्ण निवेदन ज्यूँ करता पार्थ से
उठाओ मनोबल करदो शंखनाद
और अन्तर्निहित भय का पूर्णतः करो विध्वंश
स्मरण रहे हो तुम ईश के अंश...............