29 September, 2009

आंसू अगर ये मेरे कुछ भाव जागते हों ..............


आंसू अगर ये मेरे

कुछ भाव जागते हों

तो मन मेरा कहता है

एक दिन तो तुम आओगे

जो फूट रहा अविरल धारा

मेरे नयनो से

चोटिल मेरे ह्रदय पे

मरहम तो लगाओगे

ये घाव मेरे मन पर

कपट की है निशानी

जो मेरे ही मित्रों ने

मनोरंजन में है लगाया

जब चोट लगी गहरी

मैं चीखा निरंतर था

पर मेरे दर्द को हँसी में ही था उड़ाया

कोई शिकायत नहीं गलती मेरी अपनी थी

दरिंदों से मैंने दोस्ती का हाँथ जो बढ़ाया

पर तुम तो मेरे अपने बैठे हो रूठे अब तक

की मौन स्नेह मेरा निहारती हैं राहें

स्वीकार करो मुझको तुम आज मुझे

युहीं खड़ा हूँ मैं अकिंचन फैलाए अपनी बाहें ............


कुछ बात अधूरी .......................



कुछ बात अधूरी
जो रह गयी है मन में
कागज़ का ले सहारा
जीवंत हो गयी है
रुक रुक के जो चलती थी
कागज़ पे ये कलम जो
खुश हो के आज बिलकुल स्वछंद हो गयी है
जो भाव छिपे अंदर
मन के अँधेरे में
एक दीप के जलने से
स्वतंत्र हो गयी  हैं
परिधि न कोई सीमा
न कोई अब बंधन है
सागर भी है अब अपना
अपनी ही ये गगन है
मन आज आजादी के धुन पे थीरकती है
मन अपनी ही ख़ुशी में आज आप ही मगन है

28 September, 2009

आवाज़ मेरे अंदर की कहीं शोर न बने



आवाज़ मेरे अंदर की कहीं शोर न बने
दृढ है जो मनोबल वो कमजोर न बने
आकाश में होती टिकी नज़रें जो मेरी हैं
देखना प्रभु कहीं तेरी हीं चितचोर न बने
मालूम है मंदिर में नहीं
मस्जीद में नहीं हो
तुम प्रेम के एहसास में
पर हठ जिद्द में नहीं हो 
चन्दन में नहीं हो तुम मुंडन में नहीं हो  
हर बात के हामी में खंडन में नहीं हो
तुम हो ते हो  सहज में और सरल में
तुम ही तो होते हो कर्मों के हर फल में
तुम आँखों में बसते हो रहते हो हर जगह
लड़ते हैं ये पुतले फिर यूँ हीं बे वजह
आना तुम्हारा जीवन में   बसंत की तरह
प्रारंभ  नयी हो जहाँ वो अंत की तरह
जीवन बना  दो मेरी समदर्शी हो जाऊं 
सराबोर आनंद से मैं  संत की तरह ..........          

10 September, 2009

आकाश में पदचिन्ह .........

आकाश में पदचिन्ह

कहाँ छोड़ती है पंछी

और कहाँ होती कोई

मोड़ और चौराहे

उड़ता हूँ उन्मुक्त उसी

गगन में मैं भी

स्वीकार करता सब कुछ

बाँहों को मैं फैलाये

मेरा भी कोई रस्ता

जाना पहचाना है

आकाश के परे आकाश को पाना है ...................




09 September, 2009

अन्धकार से लड़ना नहीं

अन्धकार से लड़ना नहीं
एक दीप जलना है
मन के आँगन में जो कैक्टस पनप गए हैं
वहां पे जाके आज तुलसी को लगाना है
जो दौड़ है ये अँधा और छोर नहीं कोई
काटोगे फसल तुम वो जो बीज तुमने बोई
फिर हल्ला हंगामा क्यूँ
फिर रोज़ ये ड्रामा क्यूँ
की दुनिया हरामी है और लोग हैं कमीने
सच तो है बस इतना मरने में तुम उलझे हो
ये जदोजहद में आया नहीं तुम्हे जीने.