तांडव
विकास कहूँ या कहूँ विनाश
मन में दुविधा भारी है
मानो या न मानो तांडव
प्रकृति का तो जारी है
जल विषाक्त
जंगल समाप्त
खेत हो गए खारा
और मवेशी कर रहे
जहाँ कचड़े पर हों गुजारा
साँसों में जहाँ जहर घुला
पानी की कमी खलती हो
थोड़ा तो हम करें विचार
शायद अपनी गलती हो
(फोटो : इस्कॉन दिल्ली )
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