18 March, 2012
10 January, 2012
कुछ खास नहीं कहने को है
कुछ खास नहीं कहने को है
फिर भी मन में बेचैनी है
जो दीप शिखर पर है जलती
उस पर निगाह मेरी पैनी है
संघर्ष तिमिर से नहीं मेरी
मैं तो हूँ भोर का उजियाला
मैं अदृश्य सूत्र अकिंचन हूँ
जिसमे गुथी है जीवन माला
मैं राह भी हूँ और राही भी
मैं कागज़ कलम और स्याही भी
मैं कविता भी और कवि भी हूँ
मैं उस ईश्वर की छवि ही हूँ
सृजन भी मैं विनाश भी हूँ
धरती भी मैं आकाश भी हूँ
जो बीज़ से उत्पन्न हो जंगल
उस बीज़ का दृढ विश्वास भी हूँ
मैं तांडव हूँ मैं रास भी हूँ
मैं वृन्दावन कैलाश भी हूँ
सागर भी मिटा न सके जिसे
अभिव्यक्ति की वो प्यास भी हूँ............
जो परिवर्तन का नीव रखे वैसा मैं क्रांतिकारी हू
हर बीज़ के मर मिटने का सवब
अंकुर की गाथा होती है
एक अरण्य की उज्जवल भविष्य
उस तुच्छ बीज़ में सोती है
जब मौन शब्द पा जाता है
और भावों को मिलती है उड़ान
जब कोयले की कालिख परे
हो प्रकट हीरों की खान
जब अंदर की संगीत नाद
हर ले बाहर का कोलाहल
जब वर्तमान की बेदी पर
सूरज की रौशनी पड़े प्रबल
मैं उस सूरज की सत्ता का एक मात्र पुजारी हूँ
जो परिवर्तन का नीव रखे वैसा मैं क्रांतिकारी हूँ
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