आवाज़ देने पर भी आया नहीं जो कोई
चलता रहा मैं युहीं अंजान उन राहों पर
जो धुप की तपिश थी और छांव की शीतलता
मलता रहा मैं उनको, राह की घावों पर
कभी मौन के उत्सव में, कभी शोर में अकेला
कभी मखमली घांसों पर कभी धुल से मैं खेला
पर उसकी योजना का अभिव्यक्ति मात्र मैं था
जो चल रहा था मेरे हमसफ़र की भाँती
मेरे विचार थोथे, की अकेला मैं हूँ
वो था हमेशा युहीं जैसे दीया और बाती
ऊर्जा का श्रोत वो तो संघर्ष फिर कहाँ है
निज यात्रा मेरी ये ईश्वर की कारवां है .................
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