कुछ बात अधूरी
जो रह गयी है मन में
कागज़ का ले सहारा
जीवंत हो गयी है
रुक रुक के जो चलती थी
कागज़ पे ये कलम जो
खुश हो के आज बिलकुल स्वछंद हो गयी है
जो भाव छिपे अंदर
मन के अँधेरे में
एक दीप के जलने से
स्वतंत्र हो गयी हैं
परिधि न कोई सीमा
न कोई अब बंधन है
सागर भी है अब अपना
अपनी ही ये गगन है
मन आज आजादी के धुन पे थीरकती है
मन अपनी ही ख़ुशी में आज आप ही मगन है
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