30 May, 2010

प्रेम परिभाषा से परे ...........


जब प्रश्न ही उत्तर हो तो
फिर ये कैसी जिज्ञासा है
प्रेम अनुभव ही मात्र है
तो कैसी परिभाषा है
जब अस्तित्व ही जीवन का
है प्रेम से उत्पन्न
और हर दिशा में है
जीवंत उदाहरण
भौरे की गुंजन हो या
चिड़ियों की चहचहाहट
हो फूल का खिलना
या प्रेयसी की आहट
वसुधा पे जो भी है
वो है प्रेम का विस्तार
हर ह्रदय के स्पंदन
में बस एक ही है सार
रचियता तुम्हारी लीला
का आधार है यही
सागर अथाह है
मजधार है यही
मैं तो हूँ नतमस्तक
तुम्हारे मंच पर
और दुखी हूँ लोगों के
छल प्रपंच पर
मुझे भी प्रेम की शाश्वत अनुभूति दो
हो प्रेम ही उत्पन्न वो पीड़ा प्रसूति दो
अनुरोध सुनो प्रभु हो प्रेम का जनम
एक मात्र उसी अनुभव में थिरके मेरे कदम
परिभाषा कोई हो अनुभव जरूरी है
प्रेम के अभाव में जीवन अधूरी है ................

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