ज्वालामुखी के मुख से
निकलते हुए लावे की तरह गर्म
मेरा कुंठित एवं क्रोधित मर्म
चोट बाहरी नहीं होता
कभी लगता अंदर भी है
ज्वारभाटा उठती है यूँ
भीतर कोई समंदर भी है
प्रश्न और उत्तर के परे अनुभव
कभी झकझोर जाते हैं
कभी भाव आँखों का सहारा ले
आंसू बन निकल आते हैं
पर माध्यम जो भी हो भावनाएं हमेशा
सीमाओं का अतिक्रमण करते है
तभी तो अचानक युहीं लावा की तरह
ये भाव मानस पटल पर बिखरते हैं
मेरा वजूद इन्ही सुसुप्त ज्वालामुखी की भाँती है
जब बिष्फोट होता है , लोग कहते हैं जज्बाती है .............
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