02 September, 2013

गाँधी के विवेकी बंदर

अब तो शब्दों के जंगल से
कोई विचार प्रबल हो
जो भी धर्म के नाम है होता
पर्दाफाश  वो  छल हो

मुझे नहीं है ज्ञात
झूठ है या सच है जो भी है
कौन  यहाँ  कितना दानी
और कौन महा लोभी है

माध्यम नहीं चाहिए मुझको
ईश्वर जब सबके अंदर
मेरे धर्म का मर्म मात्र
गाँधी के विवेकी बंदर

वो बंदर ही  गुरु मेरे हैं
जो मैं अभी जिन्दा हूँ
सॅटॅलाइट के गुरु घंटालों
से नतमस्तक शर्मिंदा हूँ

जाके कहदो हार से अब की हार न मानूंगा मैं
थोथी धर्म, पाखण्ड का अब अत्याचार न मानूंगा मैं
मुझे नहीं मंज़ूर करे ईश्वर की दलाली कोई
मुखरित होने लगा मेरा है अंतर्मन विद्रोही 
मेरा कार्य नहीं चंदन को गंदी नाली में बहाना
बस अपना दीपक आप ही बनकर जग रौशन कर जाना













No comments:

Post a Comment

Apna time aayega