31 August, 2013

विधाता की स्याही

क्या तिरस्कार अपमान क्या
जब हुए प्रतिज्ञाबद्ध यहाँ
तो शोषण क्या
कल्याण क्या

खुले आँखों से देखूं मैं स्वप्न
कुछ कार्य आवश्यक करने का
जो घाव असंख्य सहे हमने
उन सब घावों को भरने का

माना की लम्बी है बहुत रात
पर आशा है की नव प्रभात 
शीघ्र हर लेगी ये तिमिर घोर
बस देहरी पर आ गया भोर

पर इस क्षण  की जो परिक्षा है 
बस सही समय की प्रतिक्षा है
नहीं मन को यूँ घबराने दो
वो अवसर तो आ जाने दो

जब पञ्चजन्य की शंखनाद
रणभूमि को  कर देगी पवित्र
उस रण के ही बेदी पर तो 
उभरेगा जीवन का मानचित्र
उस मानचित्र को  पाने को
दैनिक संघर्ष मिटाने को
मैं वचनबद्ध सिपाही हूँ
जो रच सके स्वर्णिम वर्तमान
विधाता की वैसी स्याही हूँ 










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