आंसू अगर ये मेरे 
कुछ भाव जागते हों 
तो मन मेरा कहता है 
एक दिन तो तुम आओगे 
जो फूट रहा अविरल धारा
मेरे नयनो से 
चोटिल मेरे ह्रदय पे 
मरहम तो लगाओगे 
ये घाव मेरे मन पर 
कपट की है निशानी 
जो मेरे ही मित्रों ने 
मनोरंजन में है लगाया 
जब चोट लगी गहरी 
मैं चीखा निरंतर था 
पर मेरे दर्द को हँसी में ही था उड़ाया
कोई शिकायत नहीं गलती मेरी अपनी थी 
दरिंदों से मैंने दोस्ती का हाँथ जो बढ़ाया
पर तुम तो मेरे अपने बैठे हो रूठे अब तक 
की मौन स्नेह मेरा निहारती हैं राहें 
स्वीकार करो मुझको तुम आज मुझे 
युहीं खड़ा हूँ मैं अकिंचन फैलाए अपनी बाहें ............