31 October, 2009

कोई जो ख़ास है अपना तमाचा मार जाता है






कोई जो ख़ास है अपना


तमाचा मार जाता है


येही वो पल जिसमे


इंसान हिम्मत हार जाता है


मुझे ऐसे तमाचों ने


झकझोरा निरंतर है


मेरे भी तमाचे होते पर


उसमे मूल अन्तर है


मैं हिंसक नही होता


इश्वर की दया मुझ पर


पर जब भी ऐसा होता है


मैं भावुक हो जाता हूँ


कलम ख़ुद चलने लगती है


मैं कविता सुनाता हूँ


हर एक रचना मेरी है


उन्ही तमाचों का ही फल


कभी ये मौन का संकेत


कभी अंदर का कोलाहल


कुछ भी हो मगर मैं हूँ


तमाचों का आभारी


बल जो इनमे है शायद


मेरी रचना बनाती है


मेरे निश्छल ह्रदय पे

छाप अपनी छोड़ जाती है ......................

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