कोई जो ख़ास है अपना
तमाचा मार जाता है
येही वो पल जिसमे
इंसान हिम्मत हार जाता है
मुझे ऐसे तमाचों ने
झकझोरा निरंतर है
मेरे भी तमाचे होते पर
उसमे मूल अन्तर है
मैं हिंसक नही होता
इश्वर की दया मुझ पर
पर जब भी ऐसा होता है
मैं भावुक हो जाता हूँ
कलम ख़ुद चलने लगती है
मैं कविता सुनाता हूँ
हर एक रचना मेरी है
उन्ही तमाचों का ही फल
कभी ये मौन का संकेत
कभी अंदर का कोलाहल
कुछ भी हो मगर मैं हूँ
तमाचों का आभारी
बल जो इनमे है शायद
मेरी रचना बनाती है
मेरे निश्छल ह्रदय पे
छाप अपनी छोड़ जाती है ......................
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