अंदर के बगावत पर बुद्धि का लगा पहरा
और खो गया फिर से , असली था जो चेहरा
रावण के तो दस सिर थे, मेरे तो हज़ारों हैं
दीवारों के नहीं हैं कान,कानो में दीवारें हैं
खुद को ही तो हमने, जंजीरों में जकड़ा है
जिसको देखो वो ही अहंकार में आंकड़ा है
ये जो मुखौटे हैं इन्हे आज उतरने दो
इस बार विधाता को वो चेहरा गढ़ने दो
फिर पाओगे एक हैं सब ,नहीं कोई अलग है भाई
कण कण उसकी ही छवि, उसकी ही है परछाईं .
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