शिव है या फिर है शव
मौन या सुखद कलरव
उस चैतन्य का मैं पुजारी हूँ
मिला जो जीवन आभारी हूँ
की आभास उसका मुझे कण कण में है
उसकी छाप मेरे हर वचन में है
मैं भी पीना चाहता हूँ विष सागर मंथन का ताकि
अमृत के निकलने की सम्भावना बनी रहे
और सर के अंहकार पर चंद्रमा की शीतलता
चाहता हूँ मैं भी तुम्हारा सानिध्य
की मांगू क्या अब सिर्फ़ तुम चाहिए
और उससे कम कुछ नही
क्यूँकी छोड़ दी है मैंने बीजनेस भक्ति
टूट गया है मोह और ज्ञात हो गया है साध्य ................
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