प्रतिसाद (response) या प्रतिकर्म ( reaction )
हर मोड़ पर ये सवाल आता है
पर मन प्रतिकर्म ही करवाता है
प्रतिसाद हमेशा मन की उदंडता से कुचला जाता है
पर जब भी आजादी मिले तो उस अंतराल का अनुभव जरूरी है
जो भाव और विचार के बीच आता है
और अंततः कर्म में आकार पाता है
ये अंतराल का अनुभव वस्तुतः
मौन में डुबकी लगाने जैसा है
और अनंत के गहराई
से प्रतिसाद का मोती पाने जैसा है ...................
No comments:
Post a Comment