07 August, 2009

मैं जीन्दगी का साथ निभाता चला गया


मैं जीन्दगी का साथ निभाता चला गया

मंजिल तो दूर थी मगर साथी अनेक थे

साथ उनके मैं हमेशा गाता चला गया

जिनको पसंद था रुकना पड़ाव पर

उनसे मैं अपना पीछा छुडाता चला गया

कुछ ऐसे भी मिले जो अपमान करते थे

थोड़ा बढ़ो आगे तो परेशान करते थे

मेरे ही रस्ते में बोते थे कांटे वो

आज उन्ही राहों पर वो डगमगा के चलते हैं

पथिक का धर्म है चलना निरंतर ही

मैं धर्म को अपने निभाता चला गया

संकेत रचयिता का तुम को भी मिलता है

और मौन के हृदय में संगीत पलता है

मैं अपनी कदम उससे मिलाता चला गया

मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया.....

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