17 August, 2009

मैं बकरा तुम कसाई

मैं बकरा तुम कसाई
फिर इतना प्यार क्यूँ भाई
मौत का माला गले में टाँगे
हरी पतियाँ खाता हूँ
तुम जब प्यार दिखाते हो
तो मैं घबरा सा जाता हूँ
जानता हूँ ये पत्ते तेरे
मौत के पत्र-प्रमाण हैं
और जो पानी पिता मैं हूँ
अटकी मेरी जान है
तू कसाई और मैं बकरा हूँ
नियति मौत है मेरी
मरना भी उतना सच्चा है
जितनी जीवन तेरी
मरकर अमर नाम नही जिसका
मैं वैसा हूँ बकरा
मौत के क्रम में तुझसे मेरा
न कोई झगडा लफड़ा
मेरे मौत के बाद दूसरा बकरा फिर आएगा
पर तू कसाई जीवर भर तो कसाई ही रह जाएगा ..............

1 comment:

  1. आदरणीय रन्जीत जी आपकी कविता पढ़ी पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा लिखने के लिए इतना दिमाग कहा से लाते है मुझे भी बतायिए

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