मैं बकरा तुम कसाई
फिर इतना प्यार क्यूँ भाई
मौत का माला गले में टाँगे
हरी पतियाँ खाता हूँ
तुम जब प्यार दिखाते हो
तो मैं घबरा सा जाता हूँ
जानता हूँ ये पत्ते तेरे
मौत के पत्र-प्रमाण हैं
और जो पानी पिता मैं हूँ
अटकी मेरी जान है
तू कसाई और मैं बकरा हूँ
नियति मौत है मेरी
मरना भी उतना सच्चा है
जितनी जीवन तेरी
मरकर अमर नाम नही जिसका
मैं वैसा हूँ बकरा
मौत के क्रम में तुझसे मेरा
न कोई झगडा लफड़ा
मेरे मौत के बाद दूसरा बकरा फिर आएगा
पर तू कसाई जीवर भर तो कसाई ही रह जाएगा ..............
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आदरणीय रन्जीत जी आपकी कविता पढ़ी पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा लिखने के लिए इतना दिमाग कहा से लाते है मुझे भी बतायिए
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