17 August, 2009

श्रीजन की कोई क्या सीमा कहाँ पे होती कोई हद है .

भीड़ में अकेला मैं हरदम होता हूँ
येही वो पल होते हैं जब मैं मौन होता हूँ
कोलाहल जो अंदर की और बहार का जो है शोर
येही वो समय है जिसमे बोता बीज मैं चहु ओर
मैं वो बीज बोता हूँ जो बन जाते बरगद हैं
श्रीजन की कोई क्या सीमा कहाँ पे होती कोई हद है ..........

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