मेरे मन के फलक पर
कोई कर गया श्रीजन
उस कलाकार की कुची
को ढूंढे मेरा ये मन
वो रचियता है उसकी
अभिव्यक्ति मैं अनमोल
कोरे मन के विस्तृत पटल
पर डाला रंग ह्रदय खोल
आरम्भ जब उत्तम है तो
क्या अंत की चाह
किसी परिधि में बंधता कहाँ
रचना का उत्साह
मेरे अंदर का जो फलक है
और जो है बहार का
जब प्रेम नदी का श्रोत हिमालय
चाह कहाँ गागर का
जो भी बंधन है, है मन की
कहाँ अंत होती है गगन की
उसी गगन में पंख फैलाये
घूमता मै स्वछंद
तू भंवरा मै मकरंद ........
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