18 August, 2009


मेरे मन के फलक पर

कोई कर गया श्रीजन

उस कलाकार की कुची

को ढूंढे मेरा ये मन

वो रचियता है उसकी

अभिव्यक्ति मैं अनमोल

कोरे मन के विस्तृत पटल

पर डाला रंग ह्रदय खोल

आरम्भ जब उत्तम है तो

क्या अंत की चाह

किसी परिधि में बंधता कहाँ

रचना का उत्साह

मेरे अंदर का जो फलक है

और जो है बहार का

जब प्रेम नदी का श्रोत हिमालय

चाह कहाँ गागर का

जो भी बंधन है, है मन की

कहाँ अंत होती है गगन की

उसी गगन में पंख फैलाये

घूमता मै स्वछंद

तू भंवरा मै मकरंद ........



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