क्या किताबों में छीपा
जीवन का सार और ज्ञान है
मैं ने जो सार्थक है सीखा
अनुभव उसका प्रमाण है
किताबों से, परे है ज्ञान
जीवन की पाठशाला में
जो शीक्षा निहित मानवता में
है मस्जिद न शिवाला में
फिर भी तो हम अंधों के तरह
अपने ही धुन में मस्त हैं
धर्म , जाति, गोत्र में
ढूँढ़ते हल समस्त हैं
बस निशानी और चिन्हों में
तत्व ढूँढ़ते हैं हम
प्रतिष्ठा और परंपरा में
महत्व ढूँढ़ते है हम
ढूँढ़ते हैं जवाब हर सवाल का हम मजहबी
अपने सहर में आज बन कर के एक अजनबी
इस अजनबी से सहर में ,न चैन न सुकून है
खुद को ही मिटाने का कैसा ये जूनून है
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