26 August, 2013

उसके होने पे शक मैं जताता रहा















आ गए है उसी मोड़ पर फिर से हम
चले थे जहाँ से कफ़न बाँधकर
की खुदको भी देंगे वो आयाम अब
जो मिला न मुझे उसको पहचानकर

वो अलग था, ये भ्रम मैं भुनाता रहा
उसके होने पे शक मैं जताता रहा
पर जीवन की तपिश में खुले रेत पर
कोई तो था जो मुझको बचाता  रहा

स्याह चेहरा मेरा,
या पाँव के छाले हों
कई घाव जो मैंने खुद पाले हों
उन सबों पे जो मरहम लगाता रहा
उसके होने पे शक मैं जताता रहा

विक्रम के कंधे पे बैताल के भाँती मैं
हमेशा ही पूछा सवाल एक अहम्
जब संघर्ष मेरा था जारी यहाँ
तेरे होने पे मुझको रहा है भरम

क्रोध में जो कहा तुम कहाँ रह गए
कहते थे हमेशा मेरे साथ हो
कहाँ हैं तुम्हारे पदचिन्ह यहाँ
अगर तुम सच में मेरे नाथ हो

तुम्हारा इशारा उन पदचिन्हों पर
जिसे मैं अपना समझता रहा
बैताल के भाँती कंधे पे मेरे
वो बन्दे तू हमेशा लटकता रहा
ये जाना तो फिर क्या रहा जानना
तुम थे उंगली पकड़कर चलाते रहे
जब भी थक जाता मैं, स्नेह से तुम्ही तो
कंधे पे अपने मुझको बिठाते रहे.









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