क्या हुआ जो है न कोई
राह भी स्तब्ध है
जो खुशी के चंद पल हैं
मौन में उपलब्ध हैं
कोई तो श्रोत होगा जो
भावों के असंख्य प्रकार हैं
मेरे जो वक्तव्य हैं
वो मनः स्थिति का ही विस्तार हैं
विस्तार हैं वो खलबली के
जो विचारों में कभी
और कभी वो गूंज हैं
कभी मौन मन की हैं छवि
कभी तो अंतराल है
विचारों के घने जंगल में
और कभी कर्फ्यू की भाँती
पसरे अपनों के दंगल में
जो भी हैं लहरों के तरह
उपरी सतह के हिलोरे हैं
जिसे अभिव्यक्त करने को
कई सीमाएं हमने तोड़े हैं
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