
दीवारों के भी कान होते हैं 
पर हम उनसे अनजान होते है
कहता मन हमसे निरंतर ये 
कुछ दीवारें ऐसे होते हैं जिनका न प्रमाण होता है 
मन में भी ऐसी दीवारें हैं , और हैं ऐसी ही कुछ बातें 
बेच कर ईमान तुमने गर ,बटोरे ढेरो सौगातें 
मैंने देखा है करीब से खोखलापन तेरे अन्दर का 
डुगडुगी किसी और हांथो में नाचना उस उग्र बन्दर का 
खून के आंसू भी रोने हैं 
जो रहस्य तुमने दबाया था प्रकट उसको भी तो होने हैं 
पाखंड के इस विसात पर तुम्हारे प्यादे लगते बौने हैं 
मेरा क्या मैं तो मौन था न थी मुझमे तेरे सी अकड़ 
मैं तो बस एक आदमी हूँ आम 
फिर गया जिसका कभी भेजा करदेगा खिस्सा सभी तमाम... 
बहुत बढिया रचना है।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना है भाई | आपकी ऐसी रचनाओं का हमे इन्तेज़ार रहेगा |
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