जीवन के आदि अंत में जो अंतराल है
वो रिक्त जो स्थान है कितना विशाल है
आरंभ विद्या का तुमसे ही तो है माँ
स्वीकार करो नमन आज गुरु पूर्णिमा
गर तुम न होती ,होता क्या मेरा कोई वजूद
तुम्हारे शिक्षा का ही तो जीवंत मैं सबूत
मेरे ललाट पर है जो ये तिलक ये अक्षत
जीवन के उस प्रथम गुरु को मेरा दंडवत
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