न द्वार न वातायन बसचारदीवारी है
जैसे किसी बक्से में बुद्धि कैद हमारी है
मन की नहीं सुनता मैं ह्रदय भी मौन रहता
न है कोई जिज्ञासा इस खंडहर में कौन रहता
फिर जो नाटक है जो नौटंकी, बुद्धि की ही तो सृजन है
विचारों का बगीचा या कैक्टस का कोई उपवन है
काँटों की इस दुनिया में फूलों की चाह रखना
कोई तो लक्ष्य होगा जिसपे निगाह रखना
वो लक्ष्य मात्र ही तो स्वप्न है राही का
ये मार्ग तो कठिन है पर नहीं तबाही का
जो खोले मन की खिड़की ह्रदय के पट भी खोले
डब्बाबंद जो बुद्धि है स्वछंद हो के बोले
उसी उद्घोष का मैं इंतज़ार कर रहा हूँ
मन और मस्तिष्क दोनों को तैयार कर रहा हूँ
ह्रदय की भावना अब विचार के माध्यम से
रचेगी अनोखी रचना नए कुची और कलम से ...........
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