काश कोई होता जो मन की पीड़ा हर लेता
और भर लेता अपने बाहों में
और झाँक कर कहता मेरे निगाहों में
की अपराध नहीं संवेदनशील होके
चेतना शून्य होना
पर खेद है शायद चेतना शुन्य होना
गंभीर अपराध है
ऐसे में ये सोंचना भ्रम है
की कोई आये
और पीठ थपथपाए
जब रोटी थाली से गायब हो रही हो
और प्यास से कंठ सुखा हो
और उस रोटी की जंग में उलझा
चेहरा जो मेरा नहीं है
ऐसा सोंच के आश्वस्त मैं
भविष्य की योजना बना रहा हूँ
ज्ञात नहीं किस रस्ते जा रहा हूँ
क्या शिक्षा महज इस लिए
की अपनी अकर्मण्यता को
साबित करने में लगादें अपना बुद्धि और ज्ञान
फिर कैसे कहें मेरा भारत महान ..............
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