09 January, 2009

चक्रभिऊ


अभिमन्यु के तरह चक्रवियुह में नहीं चाहता जाना मैं

जहाँ मेरे अपने मुझे बेदर्दी से मार देंगे और करेंगे अपना महिमामंडन

कहलायेंगे वीर

मैं तो करना नहीं चाहता कोई युद्ध क्यूंकि होता कहाँ इसमे धरम

मौत के नाच का दर्शक भी नहीं बनना चाहता मैं

तुम इसे कायरता कहोगे और मैं प्रतिकार नहीं करूँगा

क्यूंकि परिभाषाएं भी तुम देते हो और तय करते हो नियम युद्ध के तुम्ही

ऐसे में मैं मौन रहता हूँ और तुम समझते हो अपनी जीत इसे

गर तुम कुछ कदम साथ चलते तो नम होती आँखें तुम्हारी भी

बदलती तुम्हारी धारणाएं और शायद तुम समझ पाते की अंहकार तुम्हारा

कितना है घातक जो दूसरो के वजूद को मलिन करता है

हर पल तुम्हारऐ हांन्थों कोई न कोई अभिमन्यु मरता है .

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