24 January, 2009

तिलक मैं विश्व के उन्नत ललाट पर लगा जाऊँगा.....................


मंजिल को पाना ही तो सब कुछ नहीं

यात्रा भी जरूरी है

रास्ते जो चुने हमने क्या इसमे कोई मजबूरी है

मैं नहीं मानता लक्ष्य को मुख्य

और साधन को गौण

मेरे लिए रास्ता भी उतना ही महत्व पूर्ण है

और यात्रा मेरा निजी स्वाभाव

क्युकी रुकी हुई पानी भी गंध करती है

मुझे तो प्यारी है नदी का निरंतर बहाव

जो अपने रास्ते स्वयं बनाती है

चट्टानों के ललाट पर अपने

यात्रा के अनुभवों का तिलक लगाती है

वही तिलक मैं विश्व के उन्नत ललाट पर लगा जाऊँगा

सागर के बाँहों में सामने से पहले अपनी क्षाप छोड़ जाऊँगा.

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