09 January, 2009

जीत

आदत बिगड़ गई है क्यूँ की मन है स्वछंद
हमेशा जीभ वहां अटक जाती है जहाँ नहीं है दांत
और बन जाती है आभाव ही स्वाभाव
फिर लगता है कमी है जीवन में
और दुःख झेलता है इंसान
बन जाता यूँ जीवन समसान
तो सोयी चेतना कब जागेगी मालूम नहीं
उदास मन उदास ही रह जायेगी
कल्पना की पंख लिए कब तक करोगे विचरण दुःख के नभ में
आओ चलें मन को करने नमन तोडे सारे बन्धन
क्यूँ की झेल रहे हो डबल दुःख तुम

No comments:

Post a Comment

Engineering enlightenment