31 December, 2009

नए पर पुराने का पैबंद

नए पर पुराने का पैबंद
लगाना मत मेरे मित्र
ये तुम्हारी हरकत है
बिलकुल अलग और विचित्र
देखना इस बार भी हावी न
हो आदत वो पुरानी
ये है मौका फिर से
रचना नयी कहानी ...................

फिर एक बार चला कलम रे कागज़ कोरे पर ...........

फिर एक बार
चला कलम रे कागज़ कोरे पर
और जो दिल ढोये था बोझ
मन के बोरे पर
गिरा वो ऐसे सर से
मिल गयी दिल को वो आनंद
आज मोरा थिरके कदम हो के मगन स्वछंद
और कहूँ का दोस्त
बहुत कुछ कहते मेरे कदम
नशा जो जीने में है
न दे विस्की और न रम
हमरा बात मानो तुम
त्यागो ये अहंकार का बोझ
तभी कहीं हो पायेगी अंदर के वो खोज .................

13 December, 2009

कदम तो मरे ही हैं चला रहा है कोई ............


रोया तो मैं बहुत था

जब गिरा था डगमगा के

पर क्या पता आगे कोई

मिलेगा मुस्कुरा के

खुदको सम्हाल के

बस था दो कदम बढ़ाया

तपती धुप में जैसे

मिलगया हो छाया

आशा की किरण फिर से

आंखों में जगमगाई

और खो गया कहीं वो

कर हौसला अफ़जाई

उस मुस्कुराहाट का

मैं सदैव हूँ आभारी

और उस समय से मैंने

चलना रखा है जारी

गिरता हूँ सम्हालता हूँ

उठ फिर से मैं चलता हूँ

की कदम तो मरे ही हैं

चला रहा है कोई

आंखों को लगता आगे

मुस्कुरा रहा है कोई

उसकी हँसी का मैं हूँ

उदाहरण अलबेला

आनंद की बारिश

मैं भीगता अकेला ..................














हर काव्य जैसे मेरी हो मलयागिरि चंदन........................


कभी क्रोध का परिचय है

कभी प्रेम की कहानी

कभी दिल की दास्ताँ है

कभी मन की आनाकानी

कभी फूल की खुशबू है

कभी दर्द की चुभन भी

कभी छोटी दुनिया है

कभी विस्तार है गगन की

कविता मेरी ह्रदय की

धड़कन है, है स्पंदन

हर काव्य जैसे मेरी

हो मलयागिरि चंदन........................



19 November, 2009

वो शब्द मेरे थे पर बोलता था कौन


कल मैं अकेले था

तो हंसती थी ये दुनिया

आज वो अकेलापन

buddhism हो गया

जो रौशनी मेरे

मन को छु गई

उसके लिए मैं

सुंदर एक प्रिज्म हो गया

दुनिया जिसे मेरी उपदेश मानती

वो शब्द मेरे थे पर बोलता था कौन

मैं तो उसी आवाज की परछाईं मात्र हूँ

जीवन के पाठशाला का मामूली छात्र हूँ
मैं प्रेम बाँटता बिखेरता आनंद
मैं उसी अमृत धारा का एक अक्षय पात्र हूँ...............


अंधे को मिली आँखों हो तो मांगे और क्या


अंधे को मिली आँखों हो

तो मांगे और क्या

देख रहा जग को जब

जो लगती थी मिथ्या

जो आंसू बह रहे थे

वे खुशी के थे प्रमाण

जो रंग थे जीवन के

था जो अनंत आसमान

पुलकित था रोम रोम

धन्यवाद देता मन

प्रभु देख रहा था मैं पर दृष्टी नहीं थी

विछुब्ध मन में मेरी ये श्रृष्टि नहीं थी

अब दृश्य और द्रष्टा कहाँ हैं ये पृथक

अब तेरी ही सत्ता का एहसास हर झलक ................

04 November, 2009

काश कोई होता जो तिनके का सहारा देता ..........


काश कोई होता जो तिनके का सहारा देता

मेरी मजधार में नैया को किनारा देता

रचयिता तुम तो जानते हो मैं बताऊँ क्या

सूरज की रौशनी दिया दिखाऊँ क्या

बनादो वज्र मुझे रणभूमि हुंकार मेरी

सुने जो सुन सकी नही है, विचार मेरी

मैं योद्धा हूँ रणभूमि में आया हूँ

नाम रणजीत है विजय मेरे स्वाभाव में है

जीत का जश्न मेरे ह्रदय के हर घाव में है ................

कोई आक्रोश है जो मेरे जेहन में जिन्दा है

कोई आक्रोश है जो मेरे जेहन में जिन्दा है
ऐसा लगता है पिंजडे में ज्यूँ परिंदा है
ख्वाब उड़ने के गगन में संजोये थे मैंने
हकीकत मेरे वजूद पर शर्मिंदा है

31 October, 2009

एक बार मेरे मनमीत मेरे ये गीत को देना स्वर .........



एक बार मेरे मनमीत

मेरे ये गीत को देना स्वर

जो शब्द मेरे हैं

ह्रदय नाद हैं शब्द ये बड़े प्रखर

थी तरंग जो ह्रदय पटल पर

फुट रही है आज

भाव पवित्र जो छिपे कहीं थे

दो उनको आवाज़

पाकर तेरे सानिध्य

मेरे ये गीत अमर हो जायेंगे

खोने को मेरा क्या है

तुम को खो कर जो पायेंगे .....................


प्यार जब दिखावे में हो जाता है प्रविर्तित ......................


प्यार जब दिखावे में
हो जाता है प्रविर्तित

मेरा अनुभव ये कहता है

की रिश्ते टूट सकते हैं

जब होने लगे बौछार

तोहफे का अचानक तो

मन के किसी कोने में

जानो पल रहा संदेह

की क्यूँ न कुछ करे ऐसा

की आकर्षण दिखायी दे

बिना कारण ही आए

लोग और मुझको बधाई दें

मुझको ये अनुभव हो

की महत्व पूर्ण मैं भी हूँ

पर ये सब क्यूँ , मुझको

समझ आता नहीं इश्वर

जब प्यार पावन है

तो फिर क्यूँ छल का ये चादर

अचानक बदलना क्यूँ

सहजता को तिलांजलि

मेरे अंदर सवाल अनेक

मची है खलबली

शब्द को बदलते देखा

और हाव भाव भी बदला

सब कुछ बदल गया

प्यार हो गया छु मंतर

उसी प्यार को ढूंढे है

ये पागल ह्रदय अंदर ........................


कोई जो ख़ास है अपना तमाचा मार जाता है






कोई जो ख़ास है अपना


तमाचा मार जाता है


येही वो पल जिसमे


इंसान हिम्मत हार जाता है


मुझे ऐसे तमाचों ने


झकझोरा निरंतर है


मेरे भी तमाचे होते पर


उसमे मूल अन्तर है


मैं हिंसक नही होता


इश्वर की दया मुझ पर


पर जब भी ऐसा होता है


मैं भावुक हो जाता हूँ


कलम ख़ुद चलने लगती है


मैं कविता सुनाता हूँ


हर एक रचना मेरी है


उन्ही तमाचों का ही फल


कभी ये मौन का संकेत


कभी अंदर का कोलाहल


कुछ भी हो मगर मैं हूँ


तमाचों का आभारी


बल जो इनमे है शायद


मेरी रचना बनाती है


मेरे निश्छल ह्रदय पे

छाप अपनी छोड़ जाती है ......................

25 October, 2009

स्लम डोग


जो भूख जो लाचारी


को तुम दिखा रहे हो


जो गन्दी बस्ती को तुम


भारत बता रहे हो


ये दंभ है तुम्हारा


की श्रेष्ठ तुम हो सबसे


और है ये अहंकार की


अलग हो इस जग से


तो सुनो बात मेरी


की जाग रहा भारत


नंगापन तुम्हारा


तुम्हारी ये शरारत


क्या लगता है की कब तक


करोगे तुम मनमानी


इतहास तुम बनोगे


इस पल की हम कहानी ................





रास्ता हो कोई मंजिल को हम पायेंगे ................

दृष्टी हो , हो लगन
चल सके उस राह पर
होकर हम पूर्ण मगन
जिस राह पे चला न हो कोई
हो विस्वास हो साहस की
रास्ता हो कोई मंजिल को हम पायेंगे
जीत का हम जश्न शिखर पे मनाएंगे

16 October, 2009

दीप जलना है.........

क्यूँ दीप जलाते हो बाहर तो रौशनी है

जो अन्धकार अंदर उनको भी हटाना है

उस कालकोठरी में भी एक दीप जलना है

जहाँ रौशनी वर्जित है और घोर अँधेरा है

एक दीप जो जल जाए मन के उस कोने में

रात के प्रसव में छीपा सवेरा है ......................

29 September, 2009

आंसू अगर ये मेरे कुछ भाव जागते हों ..............


आंसू अगर ये मेरे

कुछ भाव जागते हों

तो मन मेरा कहता है

एक दिन तो तुम आओगे

जो फूट रहा अविरल धारा

मेरे नयनो से

चोटिल मेरे ह्रदय पे

मरहम तो लगाओगे

ये घाव मेरे मन पर

कपट की है निशानी

जो मेरे ही मित्रों ने

मनोरंजन में है लगाया

जब चोट लगी गहरी

मैं चीखा निरंतर था

पर मेरे दर्द को हँसी में ही था उड़ाया

कोई शिकायत नहीं गलती मेरी अपनी थी

दरिंदों से मैंने दोस्ती का हाँथ जो बढ़ाया

पर तुम तो मेरे अपने बैठे हो रूठे अब तक

की मौन स्नेह मेरा निहारती हैं राहें

स्वीकार करो मुझको तुम आज मुझे

युहीं खड़ा हूँ मैं अकिंचन फैलाए अपनी बाहें ............


कुछ बात अधूरी .......................



कुछ बात अधूरी
जो रह गयी है मन में
कागज़ का ले सहारा
जीवंत हो गयी है
रुक रुक के जो चलती थी
कागज़ पे ये कलम जो
खुश हो के आज बिलकुल स्वछंद हो गयी है
जो भाव छिपे अंदर
मन के अँधेरे में
एक दीप के जलने से
स्वतंत्र हो गयी  हैं
परिधि न कोई सीमा
न कोई अब बंधन है
सागर भी है अब अपना
अपनी ही ये गगन है
मन आज आजादी के धुन पे थीरकती है
मन अपनी ही ख़ुशी में आज आप ही मगन है

28 September, 2009

आवाज़ मेरे अंदर की कहीं शोर न बने



आवाज़ मेरे अंदर की कहीं शोर न बने
दृढ है जो मनोबल वो कमजोर न बने
आकाश में होती टिकी नज़रें जो मेरी हैं
देखना प्रभु कहीं तेरी हीं चितचोर न बने
मालूम है मंदिर में नहीं
मस्जीद में नहीं हो
तुम प्रेम के एहसास में
पर हठ जिद्द में नहीं हो 
चन्दन में नहीं हो तुम मुंडन में नहीं हो  
हर बात के हामी में खंडन में नहीं हो
तुम हो ते हो  सहज में और सरल में
तुम ही तो होते हो कर्मों के हर फल में
तुम आँखों में बसते हो रहते हो हर जगह
लड़ते हैं ये पुतले फिर यूँ हीं बे वजह
आना तुम्हारा जीवन में   बसंत की तरह
प्रारंभ  नयी हो जहाँ वो अंत की तरह
जीवन बना  दो मेरी समदर्शी हो जाऊं 
सराबोर आनंद से मैं  संत की तरह ..........          

10 September, 2009

आकाश में पदचिन्ह .........

आकाश में पदचिन्ह

कहाँ छोड़ती है पंछी

और कहाँ होती कोई

मोड़ और चौराहे

उड़ता हूँ उन्मुक्त उसी

गगन में मैं भी

स्वीकार करता सब कुछ

बाँहों को मैं फैलाये

मेरा भी कोई रस्ता

जाना पहचाना है

आकाश के परे आकाश को पाना है ...................




09 September, 2009

अन्धकार से लड़ना नहीं

अन्धकार से लड़ना नहीं
एक दीप जलना है
मन के आँगन में जो कैक्टस पनप गए हैं
वहां पे जाके आज तुलसी को लगाना है
जो दौड़ है ये अँधा और छोर नहीं कोई
काटोगे फसल तुम वो जो बीज तुमने बोई
फिर हल्ला हंगामा क्यूँ
फिर रोज़ ये ड्रामा क्यूँ
की दुनिया हरामी है और लोग हैं कमीने
सच तो है बस इतना मरने में तुम उलझे हो
ये जदोजहद में आया नहीं तुम्हे जीने.

22 August, 2009

आहट तुम्हारे आने की प्रभु आज मेरे द्वार ......


आहट तुम्हारे आने की

प्रभु आज मेरे द्वार

पट तो खुला घर का है

बंद मन के हैं किवाड़

तुमको तो पता है की

बिस्वास तुम्हारा

है एक मात्र मेरा

जीने का सहारा

विचलित न करती मुझको

जीवन की रणभूमि

जो पूर्ण से आया हो

उसमे फिर क्या कमी

बस धुल हटाना है प्रभु

मन पे जो पड़ा

भक्ति मेरी निश्छल है

तेरे द्वार मैं खड़ा

बस तेज तिलक लगादो

मेरे ललाट पर

की जाग जाए वो

जो सोया हुआ अंदर

और फिर हो अभिव्यक्त

शक्ति अनंत जो

पता चले ये जग में

हर कण में तुम्ही हो

हर साँस में तुम्ही

हर धड़कन में तुम्ही हो

ये वसुंधरा पे

गगन में तुम्ही हो

तुम्ही हो और कुछ नहीं मौजूद यहाँ पर

देख सकूँ तुमको वो नेत्र दो प्रखर ................



शंकर स्वयं तुम्ही हो हनुमन.............


तुम ज्ञान और गुन के सागर तुम हो आन्जनेय

तुम्हारे आगमन से ही होता है विजय

अतुलित बलधामा तुम ही हो

और तुम हो सुमति के संग

कोटि-कोटि प्रणाम तुम्हे कंचन जिसका रंग

शंकर स्वयं तुम्ही हो हनुमन

तुम्ही हो विद्या वान्

मैं तेरा हूँ मूढ़ भक्त

तेरी कीर्ति से अनजान

सूक्ष्म भी तुम्ही हो और हो सर्वव्यापी

मैं तो हूँ बन कर जैसे कलयुग का अभिशापी

संजीविनी की पहचान तुम्हे

तुम्ही हो तारणहार

मेरे नन्हे हाथों से नमन

प्रभु करो आज स्वीकार ..........


21 August, 2009

फिर कलम मजबूर है कागज़ के जिद के सामने ...........

फिर कलम मजबूर है
कागज़ के जिद के सामने
प्रश्न है की क्यूँ बिताया
लंबा बनवास रामने
क्यूँ राम मर्यादा पुरषोतम
और रावण पापी है
दोनों की राशि है एक
फिर राम क्यूँ प्रतापी है
माँ कुमाता नही होती
फिर कैकेय को क्या कहें
मंथरा दासी है
फिर बिश्वास उसका क्या कहें
राम ले अग्नि परीक्षा
सीता तो निर्दोष है
कौन सी मर्यादा है ये
कैसा शब्दकोष है .............






20 August, 2009

मेरा काम है चंदन को घीस कर नाली में बहाना ..........




एक अकेला मैं ही हूँ


जो मस्त हूँ इस वीराने में


मालिक और नौकर भी मैं हूँ


मौत के कारखाने में


मेरा काम है चंदन को घीस कर नाली में बहाना


और फूल के खुशबू से गंदे कुत्तों को नहाना


आदत मेरी अब स्वभाव है


रोज ये मेरा धंधा है


आते जाते लोग ये कहते


पागल है ये अँधा है


मैं तो बस प्रतिबिम्ब तुम्हारा मुझे देख घबराते हो


तुम भी सब कुछ जानके भी फिर गलती क्यूँ दोहराते हो


नाली सी जीवन है कर ली खुश हो की अंजुली है भर ली


बंद हो गया डब्बे में और बेच दिया चैतन्य


तेरा जीवन है धन्य


मौत के डर से जीना छोड़ा


टट्टू बन घोडों संग दौड़ा


सोंच के ये की भाग भाग गर


भाग्य मैं अपनी बनाऊंगा


इस दौड़ के अंत में मैं तो


भाग्यशाली कहलाऊंगा


होना था आनंद जहाँ पे


वहां पे कुंठा भरी है आज


मैं तो हूँ पर्याय तुम्हारा


तुम बन गए अभिशप्त समाज ............




ह्रदय पर हावी है मस्तिष्क ......

एक उदास मन की पीड़ा
काव्य में जब समाती है
कलम की आवाज से
कागज़ भी चौक जाती है
विद्रोह जारी अंतर्मन का
जीत उसकी चाह है
ह्रदय पर हावी है मस्तिष्क
चेतना गुमराह है
मन की पीड़ा है यथावत
ह्रदय है खंडित पड़ी
मन को मारना यहाँ
टेढी खीर है बड़ी ...........

19 August, 2009

कोई आने वाला है


कोई आने वाला है
खोल दो दरवाजे मन के
और वातायन से हवा आने दो
मलिन मन को रौशनी में नहाने दो
ताकि तिमिर जो अंदर का है वो
होजाए छूमंतर
अन्धकार से लड़ना कहाँ निरंतर
बस उजाले में डुबकी लगाना है
यहाँ आज किसी को आना है
जानते हो जो है मन के परे
उसका विस्तार अनंत है
उसी अनंत के खोज में
आ रहा वो भटकता संत है
आना नहीं बस प्रकट है होना
शर्त है की स्वक्ष हो मन का हर कोना
जैसे शिल्पकार हटता है जो अधिक है पत्थर में
और प्रकट हो जाती है मनोरम काया
वस्तुतः अतिथि है तेरे ही अंतर्मन की निश्चल छाया

18 August, 2009


मेरे मन के फलक पर

कोई कर गया श्रीजन

उस कलाकार की कुची

को ढूंढे मेरा ये मन

वो रचियता है उसकी

अभिव्यक्ति मैं अनमोल

कोरे मन के विस्तृत पटल

पर डाला रंग ह्रदय खोल

आरम्भ जब उत्तम है तो

क्या अंत की चाह

किसी परिधि में बंधता कहाँ

रचना का उत्साह

मेरे अंदर का जो फलक है

और जो है बहार का

जब प्रेम नदी का श्रोत हिमालय

चाह कहाँ गागर का

जो भी बंधन है, है मन की

कहाँ अंत होती है गगन की

उसी गगन में पंख फैलाये

घूमता मै स्वछंद

तू भंवरा मै मकरंद ........



17 August, 2009

मैं बकरा तुम कसाई

मैं बकरा तुम कसाई
फिर इतना प्यार क्यूँ भाई
मौत का माला गले में टाँगे
हरी पतियाँ खाता हूँ
तुम जब प्यार दिखाते हो
तो मैं घबरा सा जाता हूँ
जानता हूँ ये पत्ते तेरे
मौत के पत्र-प्रमाण हैं
और जो पानी पिता मैं हूँ
अटकी मेरी जान है
तू कसाई और मैं बकरा हूँ
नियति मौत है मेरी
मरना भी उतना सच्चा है
जितनी जीवन तेरी
मरकर अमर नाम नही जिसका
मैं वैसा हूँ बकरा
मौत के क्रम में तुझसे मेरा
न कोई झगडा लफड़ा
मेरे मौत के बाद दूसरा बकरा फिर आएगा
पर तू कसाई जीवर भर तो कसाई ही रह जाएगा ..............

श्रीजन की कोई क्या सीमा कहाँ पे होती कोई हद है .

भीड़ में अकेला मैं हरदम होता हूँ
येही वो पल होते हैं जब मैं मौन होता हूँ
कोलाहल जो अंदर की और बहार का जो है शोर
येही वो समय है जिसमे बोता बीज मैं चहु ओर
मैं वो बीज बोता हूँ जो बन जाते बरगद हैं
श्रीजन की कोई क्या सीमा कहाँ पे होती कोई हद है ..........

08 August, 2009

डुगडुगी मदारी बजायेगा .............

डुगडुगी मदारी बजायेगा
बन्दर तो नाच दिखायेगा
और इशारे समझ के वो
लगाता रहेगा गुलाटी
मदारी के हाँथ में लाठी
रंगमंच पर हमभी तो बस
कलाकार के भाँती हैं
वो हाँथ सूत्रधार की है
जो हमसे ये करवाती हैं
पर एक दिन ऐसा आता है
जब अंहकार छु लेती है
तब सूत्रधार समझता है
देता संकेत निरंतर है
जीवन और मौत में तेरे
बस एक साँस का अन्तर है ..................




07 August, 2009

मैं जीन्दगी का साथ निभाता चला गया


मैं जीन्दगी का साथ निभाता चला गया

मंजिल तो दूर थी मगर साथी अनेक थे

साथ उनके मैं हमेशा गाता चला गया

जिनको पसंद था रुकना पड़ाव पर

उनसे मैं अपना पीछा छुडाता चला गया

कुछ ऐसे भी मिले जो अपमान करते थे

थोड़ा बढ़ो आगे तो परेशान करते थे

मेरे ही रस्ते में बोते थे कांटे वो

आज उन्ही राहों पर वो डगमगा के चलते हैं

पथिक का धर्म है चलना निरंतर ही

मैं धर्म को अपने निभाता चला गया

संकेत रचयिता का तुम को भी मिलता है

और मौन के हृदय में संगीत पलता है

मैं अपनी कदम उससे मिलाता चला गया

मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया.....

05 August, 2009

आसमान छूना है बन के आन्जेनेय............




आसमान छूना है


बन के आन्जेनेय


और करना है स्वछंद विचरण


कब होगा जामवंत तुम्हारा आगमन


मुझे रावन की लंका भी जलानी है


और संजीवनी भी लानी है


पर अंदर की लंका अयोध्या कैसे बन पाएगी


और कैसे मृत चैतन्य संजीवनी के संपर्क में हो जायेगी जीवंत


मुझे तुम जैसा गुरु चाहिए जामवंत........








04 August, 2009

तुम हो ये महत्वपूर्ण है ..............


तुम हो ये महत्वपूर्ण है

और लगता है रहने से तुम्हारे

समस्याएं विलीन हो जाती है

जो धुल पड़ गए हैं एहसासों पर

वो रंगीन हो जाती है

सारी यादें ताज़ा तरीन हो जाती है

और फिर मन करता है फैला कर

बाहों को करूँ तुम्हारा अभिनन्दन

तुम्हारे इंतज़ार में मैं खड़ा अकिंचन .....

01 August, 2009

मनोरंजन तुम्हारा हो जरूरी तो नहीं है ................

मनोरंजन तुम्हारा हो
जरूरी तो नहीं है
होना वो जरूरी है
जो सचमुच में सही है
फिर अच्छा लगे तुमको या लगे बुरा
काम जो अधूरे हैं करना उसे पूरा
तुम फिर कभी आना
राजनीति से खेद है
बस येही कारण है
जो मेरा मतभेद है .................


23 July, 2009

अर्जुन हूँ मैं और मैं ही हूँ वो पार्थसारथी ......


जिन्दगी की पाठशाला में

मैं हूँ विद्यार्थी

अर्जुन हूँ मैं और मैं

ही हूँ वो पार्थसारथी

हर मन की दुविधा मेरी है

और हल भी पास है

फिर भी मन मेरे तूँ

क्यूँ बदहवास है

लड़ाईयां रही है जारी

और लड़ते रहे हैं हम

होता जो युद्घ मस्तिष्क में

देखा उसका भी चरम

युद्घ है कहाँ ये तो खेल अंहकार का

मैं तो हूँ पुजारी उसी निर्विचार का

जो हार और जीत से परे है प्रबल है

ये वो विचार है जो कीचड़ में कमल है ..............







12 July, 2009

एक बार मुस्कुरादो मेरे रचियता ..............


एक बार मुस्कुरादो मेरे रचियता

और कर दो शंखनाद की एक युद्घ होना है

इस बार विचारों की जो सेना उग्र है

उन विचारों को अब शुद्ध होना है

एक बन रही सुरंग तेरह इंच की यहाँ

उम्मीद है जो पुर्णतः बदलदे ये जहाँ

ये नित नए झगड़े पर लगना है पूर्ण विराम

गूंज विचारों की को दंडवत प्रणाम

मन ने किया अबतक है मनमानी निरंतर

होने लगा हावी है उन पे मेरा हृदय प्रखर

विचारों के केन्द्र को हृदय पर होना स्थापित

रचयिता बजा दो बिगुल होगी ह्रदय की जीत

जय हो का गूँज मुझको अब देता सुनाई है

इस जीत पर मेरे हृदय तुमको बधाई है

तांडव न हो कोई न अब कोई रास हो .............


तांडव न हो कोई न अब कोई रास हो

हर पल तुम्हारे सत्ता का सहज एहसास हो

कोई गीत बंधे न अब शब्दों के बंधन में

हर जीव थिरके बस वही एक अंतर्नाद हो

बन जाए आँखें हीं संवाद के सेतु

अब भाषा पे क्यूँ कोई विवाद हो

मेरा है क्या जो मुझको अंहकार दे दिया

तुम श्रेष्ठ हो अलग हो ये विचार दे दिया

फिर जो पहल हुआ वो अस्तित्व के लिए

प्रभु गेंद बना कर इस तरह न खेलिए

मुझको वो समझ दीजिये मेरे श्रिजंहार

मैं अभीव्यक्ति आपका हूँ और आप चित्रकार

मैं जाऊं गर भटक तो रास्ता दिखाईये

मेरा बना रहा सदा आपसे व्यभ्हार..............




09 July, 2009

हर बीज में निहित है शक्ति घने जंगल की.........


हर बीज में निहित है शक्ति घने जंगल की

हर जीव है संकेत आनंद मंगल की

हर चीज जो रचयिता का निर्माण है

उसी के अनंत संभावनाओं का प्रमाण है

उस बीज को देदो तुम वातावरण खिलने की

दे दो वो माहौल तुम मिटटी में मिलने की

ताकि बने जो जंगल वो जीवन का सार हो

उसके कण कण का ईश्वरीय आधार हो

ये बीज कुछ नही विचारों का ही रूप है

हर वो विचार जंगल बने जो इश्वर स्वरुप है ...............................


मुझे मरना है एक बार

डर के आगे जीत है

पर मरने के डर से हर कोई भयभीत है

जैसे जन्म एक सच है , मौत भी यथार्थ है

आज रणभूमि में फिर दिग्भ्रमित पार्थ है

मुझे मरना है एक बार

मैं रोज़ रोज़ के मौत से घबराता हूँ

जिधर भी आँखें जाती हैं

मौत का नंगा नाच दिखाती है

मुझे दे दो आजादी

कर दो मुक्त बंधन से

मेरे मलिन ललाट पर

तिलक दो चंदन से

मैं मौत का पुजारी नही

नाही मैं जीवन का व्यापारी हूँ

मैं एक सम्मान जनक मौत का अधिकारी हूँ

मेरा मरना मेरे अभिव्यक्ति के लिए जरूरी है

अभी भी मेरी जीवन गाथा अधूरी है

07 July, 2009

जब साथ हो कल्पवृक्ष तो क्यूँ चाह बीज की ...........


मुझे दीखता है गुरु प्रकृति के हर एक रूप में

साथ उसका मिला मुझे हर छाँव धुप में

मैं कब कहाँ अलग था मैं कब था अकेला

गुरु तुम थे तो मैं सोना बना ,था तो एक ढेला

मेरा है क्या जो मुझको हो थोड़ा भी घमंड

विस्वास मेरा तुझपे है अडिग और अखंड

तुम हो तो फिर कमी कहाँ है किसी चीज की

जब साथ हो कल्पवृक्ष तो क्यूँ चाह बीज की ...........

गुरु तुम पूर्ण माँ हो


गुरु पूर्णिमा पर अन्धकार का दमन

गुरु के चरणों में मेरा नमन

तुम ब्रह्म हो और विष्णु भी

तुम ही महेष हो

मेरे चैतन्य के केन्द्र में

तुम विशेष हो

तुम्हारे सान्धिय में मेरा विकास है

होना तुम्हारा जैसे एक खुला आकाश है

गुरु तुम पूर्ण माँ हो

गुरु पूर्णिमा पर मेरा स्वीकार करो दंडवत प्रणाम

तुमने ही दिया मेरे जीवन को नई परिभाषा नया आयाम ...........




25 June, 2009

छुना है आसमान ................



घुटनों के बल चलना नहीं


छुना है आसमान


जो जीवन के दाव पेंच हैं


उनसे करो पहचान


जरूरी नहीं तुम्हारा हर निर्णय सही हो


पर तुम बीज बोते रहना बिश्वास का


क्यूंकि अनुभव तुम्हारा लेजायेगा आगे तुम्हे


जहाँ तुम्हारा स्वछंद विचार


तुम्हे नई दिशा का ज्ञान कराएगा


तुम्हारा निर्णय छमता ही तुम्हे पंख देगा लम्बी उड़ान का


वही तुम्हे जंजीरों से स्वतंत्र कराएगा .............


24 June, 2009

पन्गुइन के सहर में मैं एक मोर हूँ ............


पन्गुइन के सहर में मैं एक मोर हूँ

घनघोर अंधेरे को जो तोड़ दे वो प्रभात वो भोर हूँ

मेरी हर एक पहल अभिव्यक्ति है उस सर्वशक्तिमान की

मुझे सच पर बिश्वास है , जीता जीवन मैं अनजान की

बन नहीं मैं सकता मैं पन्गुइन खुश हूँ मोर होके

इनके अंधे दौड़ से बहार , जो रोके न रुके

मेरा तो उद्देश्य है जीवन को खुल के जीना

श्याम श्वेत जीना गंवारा नहीं

मैं तो आनंद का पर्याय हूँ ,जीत हार प्यारा नहीं

उसी आनंद में मैं निरंतर आत्मविभोर हूँ

पन्गुइन के सहर में मैं अकेला जीवित मोर हूँ .............

22 June, 2009

डर के बाद होता जीत है


मेरे अंदर का डर

मुझे मजबूत कर जाता है

जब मैं विचलित नहीं होता
डर विलीन हो जाता है

लेकिन उस अन्तराल में

मन के साथ मेरा युद्घ चलता है

हर निराशा के विचार पर

आशावादी शब्दों का प्रहार चलता है

डर के बाद होता जीत है

और हारना अपनी कमजोरियों से

कहाँ रणभूमि की रीत है

मन के हारे हार है

मन के हावी होने का बस येही आधार है

जीतना अगर है तो मन का विनाश जरूरी है

उड़ना हो बंधन तोड़ तो खुला आकाश जरूरी है

तो मन के कलाबाजी पर नियंत्रण

मन का पुर्णतः आत्म समर्पण

जीत के संभावनाओं को बुलंद करता है

अब डर के बाद जीत से कौन डरता है

हर कदम जब अभिव्यक्ति हो जायेगी

हर युद्घ जब कुछ नए परिवर्तन लाएगी

तब जीत के नए आयाम सामने आयेंगे

डर विलीन होगा और हम प्रेम से जीत को गले लगायेंगे ...............


21 June, 2009

पापा आयी लव यू ............


papa at times u have been tender

at times u were rude

but all your attempts was

to make me cool dude.

i wonder that will i be able

to give what i have got

papa i wanna tell u

your presence means a lot

i failed and then i scaled

i cried in pain and cherished every win

u were there to hold my hands and enlighten within

with passing day and fight for bread

i left u but i am afraid

still i look to see around

the strong hand that can bound

and free me for all the fear

papa u r my best friend u r dear

i salute u because u just stand out of crowd

to be in ur loving presence i always feel happy and proud......

20 June, 2009

अपनी ही दुनिया में मैं आज अजनबी .........



शब्दों के जंगल में


परिभाषाओं की बाढ़ है


भावनाओं का मोल क्या


यहाँ अनुभव लाचार है


होड़ है लगी आगे मैं निकल जाऊँ


कोई ऐसी नयी मैं चाल चल जाऊँ


लोगों को हराकर करूँ मैं जीत का एलान


अपनी बना सकूँ भीड़ से अलग पहचान


इसी क्रम में भूला मैं इंसान था कभी


अपनी ही दुनिया में मैं आज अजनबी ........



मुझे बतखों के स्कूल में नही जाना है



आकाश के विस्तार को पाना है


मुझे बतखों के स्कूल में नही जाना है


मुझे संग चाहिए उड़ने वाले पंछी का


जो उड़ना सिखादे


मेरे अंदर का आन्जनेय जगादे


मुझे जामवंत जैसे गुरु की तलाश है


जो बस मेरे संभावनाओं पर सोंचने पर करे मजबूर


देदे वो विश्वास की उड़ सकूँ पंख पसार सुदूर


और भर लूँ आसमान को अपने बाँहों में


मुझे विचरण करना है आकाश के अनजान राहों में .......................

15 June, 2009

मैं जीवन की पहेली को सुलझाने की चेष्टा नहीं रखता .............


मेरा क्या है खोने को
कौन है अपना होने को
था अकेला पहले भी
और आज भी अकेला हूँ
मैं इस राह का पथिक पहला हूँ
पदचिन्ह कहाँ जिसे मैं करूँ अनुसरण
चलता हूँ जैसा कहता मेरा अन्तः करण
मैं जीवन की पहेली को सुलझाने की चेष्टा नहीं रखता
मैं तो खुश हूँ अपनी यात्रा के अनुभवों से
और बताना चाहता बस इतना
की मैं मुर्ख और दुनिया सयाना है
मैं भेड़ की भीड़ से अलग हूँ
मुझे अपना रास्ता स्वयं बनाना है ...............

10 June, 2009

दधीची स्वीकार करो मेरा मौन अभिनन्दन


मेरी एक अभिलाषा है

और छोटी सी है आशा एक

की वज्र बने मेरे मन को मार कर

देना चाहता हूँ मैं दान में अपना विचलित मन

जैसे दधीची ने दी थी अपनी हड्डियाँ

ताकि बन सके वज्र और विनाश की बेदी पर

श्रीजन के बीज प्रतिस्फूटित हों

और कालांतर तक मस्तिष्क पर छोड़ दूँ छाप

लगादुं समय के उन्नत ललाट पर शीतल चंदन

दधीची स्वीकार करो मेरा मौन अभिनन्दन ........................

शिव जी जस्ट वान्ना से हेल्लो


शिव है या फिर है शव

मौन या सुखद कलरव

उस चैतन्य का मैं पुजारी हूँ

मिला जो जीवन आभारी हूँ

की आभास उसका मुझे कण कण में है

उसकी छाप मेरे हर वचन में है

मैं भी पीना चाहता हूँ विष सागर मंथन का ताकि

अमृत के निकलने की सम्भावना बनी रहे

और सर के अंहकार पर चंद्रमा की शीतलता

चाहता हूँ मैं भी तुम्हारा सानिध्य

की मांगू क्या अब सिर्फ़ तुम चाहिए

और उससे कम कुछ नही

क्यूँकी छोड़ दी है मैंने बीजनेस भक्ति

टूट गया है मोह और ज्ञात हो गया है साध्य ................


01 June, 2009

जब रास्ते मंजिल हों तो राही को क्या डरना


जब रास्ते मंजिल हों तो राही को क्या डरना

जिन्दगी पाठशाला किताबों में क्या पढ़ना

क्या शोध , क्या पढ़ाई रोटी के लिए करना

जो जन्मा इस धरा पर एक दिन है उसे मरना

फिर काहे का ये हल्ला और क्यूँ है ये हंगामा

जिन्दगी के रंगमंच पर चल रहा जो ड्रामा

तुम पात्र में अपने इस तरह खो गए हो

अपने ही अंतर्मन से अलग हो गए हो

झख्झोर के तुमको बस इतना है बताना

इस मंच के परे भी कोई और है ठिकाना

जहाँ चित्र भी तुम्ही हो और चित्रकार भी हो तुम ही

जहाँ प्रेमी भी तुम्ही हो और प्यार भी हो तुम ही

तुम्हारे इस यात्रा का हमसफ़र बस वही है

उसके हांथों में हाँथ तो फिर सब सही है .................





31 May, 2009

मैं ढूँढता हूँ मौन में जीवन के सार को ....................


हर मोड़ सीखती है जीवन के कुछ नियम

कुछ खट्टी मीठी यादें , कुछ आड़ी तीर्क्षी क्रम

दुनिया विकल्पों की खुलती है बार बार

आजादी चयन की , तुम्हारा ही अधिकार

हर एक पल जो बीतती इतिहास हो जाती

जो पल हमारे पास न , भविष्य कहलाती

जो अंतराल बीच का है उसी का महत्व

उस अन्तराल में छीपा जीवन का सार तत्व

मेरा जो संचित अनुभव वो कहता है बस येही

जो है हमारे हांथ वो ये पल और कुछ नहीं

तो मनको ज़रा बतादो कलाबाजी कम कर

हर बात उठती वहां तो हामी न भरे

मैं ढूँढता हूँ मौन में जीवन के सार को

आकर देता हूँ मैं उसी के विचार को

उसकी हो इक्षा पुरी , मेरा भी लक्ष्य है

मेरे जीवन में निहित इश्वर प्रत्यक्ष है

26 May, 2009

हे कृष्ण कब होगा तुम्हारा आगमन


अर्जुन भी घबराया था देख कर


की युद्घ अपनों से ही करना है


और तब कृष्ण ने जो समझाया


वही उवाच कालांतर में गीता कहलाया


मैं भी आज का अर्जुन कृष्ण को तलाश रहा हूँ


जीवन के युद्घ भूमि पर मेरा सारथि न होने पाए मेरा विचलित मन


हे कृष्ण कब होगा तुम्हारा आगमन ................

24 May, 2009

संगीत जो बजाता रचयिता ..................


जिन्दगी की कहानी येही है

जो होता वो होता सही है

मन है जो बताता है तुमको

हार जाना सही तो नही है

पर मानना मेरे दिल का है इतना

हार के बाद ही तो जितना है

हार से हार जाना बुरा है

हार के बिना जीत अधुरा है

जिन्दगी के रस्ते सरल है

हर समस्या जो है उसका हल है

बात इतनी उतारो जेहन में

स्वीकार करो हर पल जीवन में

प्रतिकार ही समस्या का जड़ है

स्वीकार समस्याओं का पतझड़ है

सावन को जीवन में आने दो

हर कली को फूल बन जाने दो

संगीत जो बजाता रचयिता

उसपे अपने पावं थीरक जाने दो......................


23 May, 2009

डर के बाद जीत है


उस राह पर मुझे जाना है


जिसपर जाने से डरते हैं लोग


मुझे अच्छा लगता है जब मेरे


आत्मविश्वास से टूटते हैं धारणाएं


और फिर जुड़ती है संघर्ष की अनेक कथाएँ जीवन से मेरी

मेरे इन कथाओं में मेरी सफलता की बात है

पर हर अन्धकार को चीरती सूर्योदय का प्रकाश है

मेरे कहानी में अन्धकार मेरे मन की मनमानी है

और सूर्योदय मेरे आत्मविश्वास की निशानी है

हर डर के बाद जीत है

हार मेरे स्वाभाव से भली भाति परिचित है .....................

Apna time aayega